Thursday 16 October 2014

तराना-ए-अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी / ترانہء علی گڑھ مسلم یونیورسٹی

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ 
یہ میرا چمن ہے میرا چمن، میں اپنے چمن کا بلبل ہوں

सरशार-ए-निगाह-ए-नर्गिस हूँ, पाबस्ता-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूँ
سرشارِ نگاہِ نرگس ہوں، پابستہءِ گیسوءِ سمبل ہوں

हर आन यहाँ सोहबा-ए-कुहन, इक साग़र-ए-नव में ढलती है 
ہر آن یہاں صہپاےءِ کہن، اک ساغر نو میں ڈھلتی ہے

कलियों से हुस्न टपकता है, फूलों से जवानी उबलती है 
کلیوں سے حسن ٹپکتا ہے، پھولوں سے جوانی ابلتي ہے

जो ताक़-ए-हरम में रौशन है वो शमा यहाँ भी जलती है 
جو طاقِ حرم میں روشن ہے وہ شمع یہاں بھی جلتی ہے

इस दश्त के गोशे-गोशे से इक जुए हयात उबलती है 
اس دشت کے گوشے - گوشے سے اک جوئے حیات ابلتي ہے

इस्लाम के इस बुत खाने में असनाम भी हैं और आज़र भी 
اسلام کے اس بت خانے میں اصنام بھی ہیں اور آذر بھی

तहज़ीब के इस मयख़ाने में शमशीर भी है और साग़र भी 
تہذیب کے اس ميخانے میں شمشير بھی ہے اور ساغر بھی

याँ हुस्न की बर्क़ चमकती है, याँ नूर की बारिश होती है 
ياں حسن کی برق چمکتی ہے، ياں نور کی بارش ہوتی ہے

हर आह यहाँ इक नग़मा है हर अश्क यहाँ इक मोती है 
ہر آہ یہاں اک نغمہ ہے ہر اشک یہاں اک موتی ہے

हर शाम है शाम-ए-मिस्र यहाँ, हर शब है शब-ए-शीराज़ यहाँ 
ہر شام ہے شامِ مصر یہاں، ہر شب ہے شبِ شيراز یہاں

है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ 
ہے سارے جہاں کا سوز یہاں اور سارے جہاں کا ساز یہاں

ये दश्त-ए-जुनूँ दीवानों का, ये बज़्म-ए-वफ़ा परवानों की 
یہ دشتِ جنوں دیوانوں کا، یہ بزمِ وفا پروانوں کی

ये शहर-ए-तरब रूमानों का, ये ख़ुल्द-ए-बरीं अरमानों की 
یہ شہرِ طرب رومانوں کا، یہ خلدِ بریيں ارمانوں کی

फितरत ने सिखाई है हमको, उफ्ताद यहाँ परवाज़ यहाँ
فطرت نے سکھائی ہے ہم کو، افتاد یہاں پرواز یہاں

गाये हैं वफा के गीत यहाँ, छेड़ा है जुनूँ का साज़ यहाँ 
گائے ہیں وفا کے گیت یہاں، چھیڑا ہے جنوں کا ساز یہاں

इस फर्श से हमने उड़-उड़ कर अफलाक के तारे तोड़े हैं 
اس فرش سے ہم نے اڑ - اڑ کر افلاک کے تارے توڑے ہیں

नाहिद से की है सरगोशी, परवीन से रिश्ते जोड़े हैं 
ناہید سے کی ہے سرگوشي، پروین سے رشتے جوڑے ہیں

इस बज़्म में तेगें खींची हैं, इस बज़्म में साग़र तोड़े हैं 
اس بزم میں تیغیں کھینچی ہیں اس بزم میں ساغر توڑے ہیں

इस बज़्म में आँख बिछाई है इज बज़्म में दिल तक जोड़े हैं 
اس بزم میں آنکھ بچھائی ہے اس بزم میں دل تک جوڑے ہیں

इस बज़्म में नेज़े फेंके हैं, इस बज़्म में खंजर चूमे हैं 
اس بزم میں نیزے پھینکے ہیں، اس بزم میں خنجر چومے ہیں

इस बज़्म में गिर कर तडपे हैं, इस बज़्म में पी कर झूमे हैं 
اس بزم میں گر کر تڑپے ہیں، اس بزم میں پی کر جھومے ہیں

आ-आ के हजारों बार यहाँ ख़ुद आग भी हमने लगाई है 
آ - آ کے ہزاروں بار یہاں خود آگ بھی ہم نے لگائی ہے

फिर सारे जहाँ ने देखा है ये आग हमने बुझाई है 
پھر سارے جہاں نے دیکھا ہے یہ آگ ہم نے بجھائی ہے

याँ हमने कमंदें डाली हैं, याँ हमने सलाखुं मारे हैं 
ياں ہم نے كمندیں ڈالی ہیں، ياں ہم نے سلاخوں مارے ہیں

याँ हमने क़बायें नोची हैं, याँ हमने ताज उतारे हैं 
ياں ہم نے قبایںء نوچي ہیں، ياں ہم نے تاج اتارے ہیں

हर आह है ख़ुद तासीर यहाँ, हर ख़्वाब है ख़ुद ताबीर यहाँ 
ہر آہ ہے خود تاثیر یہاں، ہر خواب ہے خود تعبیر یہاں

तदबीर के पाय-संगीं पर झुक जाती हैं तक़दीर यहाँ 
تدبیر کے پائے سنگین پر جھک جاتی ہیں تقدیر یہاں

ज़र्रात का बोसा लेने को सौ बार झुका आकाश यहाँ 
ذرّات کا بوسہ لینے کو سو بار جھکا آکاش یہاں 

खुद आँख से हमने देखी है बातिल की शिकश्त-ए-फाश यहाँ 
خود آنکھ سے ہم نے دیکھی ہے باطل کی شكشتِ فاش یہاں

इस गुलकदा-ए-पारीना में फिर आग भड़कने वाली है 
اس گلكدہء پارينہ میں پھر آگ بھڑکنے والی ہے

फिर अब्र गरजने वाले हैं, फिर बर्क़ कड़कने वाली है 
پھر ابر گرجنے والے ہیں، پھر برق کڑکنے والی ہے

जो अब्र यहाँ से उठेगा वो सारे जहाँ पर बरसेगा 
جو ابر یہاں سے اٹھے گا، وہ سارے جہاں پر برسے گا

हर जुए रवाँ पर बरसेगा, हर कोहे गिराँ पर बरसेगा 
ہر جوئے رواں پر برسے گا، ہر کوہ گراں پر برسے گا

हर सर-व-समन पर बरसेगा, हर दश्त-व-दमन पर बरसेगा 
ہر سر وسمن پر برسے گا، ہر دشت و دمن پر برسے گا

ख़ुद अपने चमन पर बरसेगा, गैरों के चमन पर बरसेगा 
خود اپنے چمن پر برسے گا، غیروں کے چمن پر برسے گا

हर शहर-ए-तरब पर गरजेगा, हर क़स्र-ए-तरब पर कड़केगा 
ہر شہرِ طرب پر گرجے گا، ہر قصرِ طرب پر كڑكےگا

ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा 
یہ ابر ہمیشہ برسا ہے، یہ ابر ہمیشہ برسے

~
मजाज़ / مجاز 
1936
~
© Aligarh Muslim University (http://www.amu.ac.in/)
~
When Dr. Zakir Husaain was the Vice Chancellor of AMU he removed some verses from the original Poem of Majaz and thus the ‘Tarana-E-Aligarh’ came in existence. Enjoy the melody of the AMU’s Tarana http://www.youtube.com/watch?v=VIos_YTJ3po
~
Research and Compilation by - https://www.facebook.com/naiyarimam.siddiqui

Saturday 4 October 2014

इक मुलाक़ात ‘रावण’ से

सुबह ही सुबह किसी ने मुझे झंझोड़ के उठाया – अमाँ यार उठो, नमाज़ नहीं पढ़नी क्या तुम्हें? मैं जल्दी से उठा तो देखा रावण भाई मेरे पैताने बैठे हुए थे. मैं घबरा के पूछा, आज इधर कैसे और वो भी इतनी सुबह? पहले तुम नमाज़ पढ़ आओ, फिर बात करते हैं. आँख मसलते हुए मैंने घड़ी देखी, सुबह के 04: 30 हो रहे थे. थोड़ी देर में अज़ान होने वाली थी. मैंने बिस्तर के उठ के मुहँ धोया, वज़ू किया और बाद नमाज़ क़ुरान की तिलावत की और वापस आ के पूछा, ‘हाँ ! अब कहों, आज कैसे याद किया?’

‘‘क्या क्या सितम उसने किये जान पे मेरी, क्या बात है वो फिर भी सितमगर नहीं लगता’’ – दीवार से टेक लगाए मेरे सवाल के जवाब में उसने शे’र सुनाया. मैंने कहा क्या बात है आज बहुत शायराना मूड में हो. इधर मैं सुलगा पड़ा हूँ और तुम्हें मस्ती सूझी पड़ी है, उसने गुस्से से अपना नाक फुलाया. अच्छा चलो अब मस्ती नहीं, सीरियसली  बताओ क्या बात है जो सुलगे पड़े हो?

यार, ये बताओ कि मैंने ऐसा क्या किया है जो हर साल जलाया जाता हूँ और राम ने ऐसा क्या किया है जो सदियों से पूजा होती आ रही है उसकी? देख भाई, ये ‘इंटर रिलिजन’ सवाल मत पूछ, बहुत लफड़ा होता है इधर मेरे देश में दुसरे के धर्म के बारे में बोलने पर. देख, तू कन्नी मत काट, सीधे-सीधे जवाब बता. भाई, पहले तू अपना पक्ष, अपनी दलील रख तभी मैं निष्पक्ष फ़ैसला कर पाउँगा.

मतलब तू चाहता है आज मैं फिर से एक बार इतिहास, भूगोल उलट-पुलट करूं. मेरे दस सिर हैं फिर भी मेरी याद्दाश्त थोड़ी कमज़ोर है. जितना याद है उसके मुताबिक़ तुम्हारा आज के दक्षिण भारत का कुछ भाग भी तब मेरे राज्य के अधीन था. राम अपनी पत्नी एवं भाई लक्ष्मण के साथ वनवास काट रहे थे और उस वक़्त मेरे राज्य के जंगल में विचरण कर रहे थे. ‘फेयर एंड लवली’ लगाने वाले देश के दो जवान युवक देख कर वो उनपर मोहित हो गयी, हालाँकि उनका रंग हमारे देश के जवानों से थोड़ा सा ही हल्का रहा होगा, पर वो बात तो सुना होगा न कि दिल लगा दीवार से तो.... जिस देश में कृष्ण और राधा नें ‘अपने अपने’ ‘’साथी’’ को छोड़ ‘लिमिटलेस’ प्यार किया उसी देश के युवकों नें मेरी बहन के प्रणय निवेदन का मज़ाक़ बनाया और लगे दोल्हा-पाती खेलने. एक कहता दुसरे से कर लो, दूसरा कहता पहले से कर लो. कृष्ण ने तो कई हज़ार पटरानियाँ रखी थी, अगर राम और लक्ष्मण एक पत्नी ‘ज़्यादा’ रख लेते तो मेरे जंगल में कुटिया रखने के लिए ज़मीन थोड़े न कम पड़ जाती? मेरी बहन राजकुमारी थी फिर भी ‘’लीगली’’ ‘दूसरी पत्नी’ बनने को तैयार थी लेकिन उन दोनों को दोल्हा-पाती खेलते खेलते जाने कब और क्यूँ गुस्सा आया कि एक ने मेरी बहन के नाक-काट लिए. मेरी बहन रोते क़िले में आई और सारा माजरा कह सुनाया. तुम बताओ सब जान के कौन सा भाई होगा जिसका खून नहीं खोलेगा? माना कि तब चुनाव नहीं होते थे लेकिन रजा को भी अपना दबदबा बना के रखना पड़ता है, वरना मेरा भाई कब तख़्ता पलट देता, क्या भरोसा? तुम्हें तो पता ही है कि गुस्से में मेरा ख़ुद पे कंट्रोल नहीं रहता, दस दिमाग़ की बात कैसे समझता. न आगा देखा ना पीछा. राम और लक्ष्मण को छकाने के बाद मैंने सीता का हरण कर लिया. उन्हें अशोक वाटिका में नेचुरल ऐ.सी में रखा, कभी हाथ नहीं लगाया. राम वनवास समाप्ति के बाद राजगद्दी पर बैठते, मैं भी रजा था, हमारी भाषा अलग थी, उन्हें मामला बहुभाषीय के ज़रिये सुलझाना चाहिए था. मैंने सीता का हरण सिर्फ़ इसलिए किया था कि पता चले कि स्त्री कि इज़्ज़त कितनी नाज़ुक होती है, ये खेलने कि नहीं सम्मान कि हक़दार होती है लेकिन वो बातचीत करने नहीं आए. हनुमान के ज़रिये मेरे राज्य में ‘घुसपैठ’ करा दिया. मेरे जंगल से बिना मेरी इजाज़त पेड़ काटे, पत्थर उखाड़े, मिटटी काटी और पुल बनाया. जिसका पर्यवारनणीय ख़ामियाज़ा हमने पिछले दसक में सुनामी के रूप में भुगता. पूल बना कर हनुमान मेरे महल तक आये लेकिन संवाद करने नहीं, शाजिश करने. सीता को महल से भगाने के लिए उसने शाजिश रचा और जब हमारे सैनिकों ने रोकना चाहा तो मेरी सोने की लंका को कोयले की लंका में बदल दिया. तुम्हारे सोने जैसी चिड़िया देश को अंग्रेज़ों ने लूटा तो आज तक तुम लोग उन्हें गाली देते हो, मेरी लंका हनुमान ने फूंक दी फिर भी हमारे वंशजों ने कभी किसी बानर को गाली नहीं दिया ना ही किसी भारतीय को क्यूँकी हनुमान का नेतृतव तो भारतवंशी राम ही कर रहे थे. उल्टा हमने अपने जंगलों में बानरों को रहने का ‘परमिट’ जारी किया. राम ने मेरे साथ विश्वासघात किया, मेरे भाई-भतीजे, और बेटे को वारगालाया, ‘सत्ता’ में ‘गठबंधन’ का लालच दे कर मेरे ख़िलाफ़ युद्ध के लिए उकसाया और मेरा ‘वध’ कर दिया. युद्ध में वो सब भी मारे गए लेकिन छल-कपट से जीता गया युद्ध राम को ‘भगवान’ बना गया और मुझे ‘दानव’. (हालाँकि भारत में भगवान का कॉपीराईट ‘ब्राह्मण खानदान’ के पास है फिर क्षत्रिय खानदान में भगवान कैसे पैदा हो गए?) युद्ध उपरान्त भारत लौटते समय वो मेरा पुष्पक विमान तक उठा ले गए. जिस सीता के लिए मेरी सवर्ण नगरी जला दी, मेरा खानदान बर्बाद कर दिया उसी सीता को गर्भ की हालत में त्याग का दिया राम ने और ‘मर्यादा पुरषोत्तम’ का ‘मैडल’ जीत लिया. जो हनुमान अपना सीना चीर के ये दिखा सकता है कि मेरे सीने में राम, सीता और लक्ष्मण हैं वो सीता के अग्नि परीक्षा के वक़्त चुप क्यूँ रहा? सीता कि शुद्धता की गवाही क्यूँ नहीं दी उसने? जिसने सीता के धोका किया उसी का मंदिर सबसे ज़्यादा है तुम्हारे देश में, जिसने सीता कि अग्नि परीक्षा ली उसके मंदिर के नाम पे ‘सत्ता का ख़ूनी खेल’ खेला जाता है लेकिन जिसने सारा सितम हँस के सहा उसके कितने मंदिर है तुम्हारे यहाँ? मैंने सारी बेईमानियाँ बर्दाश्त इसलिए की के मेरे दहन के बहाने ही सही सीता को याद तो किया जाएगा, लेकिन सीता ‘बैकफूट’ में चली गयी और राम ‘फ्रंट फूट’ में आ गए. ये सारा सितम भी मैंने गवारा किया लेकिन कल शाम सुभाष मैदान में मैं अपने दहन से पहले ही सुलग चूका था. मैं लाख बुरा सही, लेकिन मैंने मजलूमों का खून नहीं बहाया, गर्भवती महिलाओं का गर्भ चीर के उनके बच्चों को तलवार पे ले के नहीं घूमा, मैंने बलात्कार नहीं किया, मैंने बच्चों को नहीं मारा, इंसानों को ज़िन्दा नहीं जलाया, किसी कि जासूसी नहीं की, अपनी पत्नी को पत्नी सुख से वंचित नहीं किया, उसे परित्यक्त नहीं किया लेकिन ये सभी कर्म करने वाला और कराने वाले इंसान ने जब मेरे दहन के लिए धनुष-बाण उठाया तो ऐसा लगा कि आज रावण ज़िन्दा हो गया, राम मर गया.

मैंने अपनी सदियों लम्बी कहानी ‘कॉम्प्रेस’ कर के तुम्हें सुना दी, अब सुनाओ अपना निष्पक्ष फ़ैसला. भाई रावण मेरे हिसाब से तुम ही सही हो, लेकिन मेरे फ़ैसले से मेरे देश में बवाल हो जाएगा, लोग मुझे ही ‘आतंकवादी’ घोषित कर देंगे इसलिए मैं अपना फ़ैसला सुरक्षित रखता हूँ और ये वादा करता हूँ कि आज से किसी को ‘रावण दहन’ की बधाई नहीं दूँगा. तुम जबतक जियोगे राम को जीना पड़ेगा, यही तुम्हारी जीत है.


~ © नैय्यर / 04/10/2014 

Tuesday 9 September 2014

लघुकथा / शिक्षक दिवस

मुंगेरीलाल शहर के सबसे बड़े 'पतंगबाज़' थे. अचानक उन्हें जाने क्या सूझी कि शिक्षक दिवस के हफ़्ते भर पहले उन्होंने 'ढील' छोड़ी कि वो शहर के सभी विद्यालाओं के बच्चों को संबोधित करेंगे और सभी विद्यालय इसके लिए ज़रूरी इंतज़ाम कर लें. सभी विद्यालाओं को इसके बदले मेरी तरफ से 'दान-ज्ञान' भी दिया जायेगा. 

चूँकि मामला 'दान' का था इसलिए मन मार के सभी विद्यालयों ने ज़रूरी इंतज़ाम कर लिया. 'दान' के साथ-साथ पतंगबाज़ी का 'ज्ञान' भी मुफ़्त में मिल रहा था इसलिए ख़र्चे की कोई बात नहीं कर रहा था. नियत दिन-समय पे मुंगेरीलाल शहर के 'इनडोर स्टेडियम' पहुँचे. वहाँ सभी विद्यालयों से 'चुनिन्दा' छात्रों को 'जमा' किया गया था और बाक़ी सभी विद्यालयों में 'प्रोजेक्टर' या 'टीवी' का इंतज़ाम था. जहाँ बच्चों को सिर्फ़ 'देखना' था.

दीप जला कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया. मुंगेरीलाल ने 'ढील' छोड़ी और और 'पतंग' हवा में. एक बच्चा जिसे पतंगबाज़ी में कोई रूचि नहीं थी, वो बैठे बैठे ऊब गया तो उसने मुंगेरीलाल से कहा - 'महाशय, अब तो आपकी पतंग दिख भी नहीं रही, लगता है सातवें आसमान से भी आगे निकल गयी है. अब तो आपका पतंग भी कोई नहीं काट सकता तो मुझे मेरे कुछ प्रश्न का उत्तर दीजिये. मुझे पतंगबाज़ी में नहीं कंचे खेलने में महारत है तो मैं आपके 'पतंग कला' का उपयोग अपने कंचे खेलने में कैसे कर सकता हूँ? मुंगेरीलाल में अपना सीना फुलाकर 72 इंच का कर लिया और कहा कि - 'कंचे खेलना बुरी बात है और ये गंदे बच्चे खेला करते हैं., बच्चों को अपना लक्ष्य ऊँचा रखना चाहिए पतंग की तरह, ऊँची सोच, ऊँचा लक्ष्य' और लगे अपनी ढील लपेटने. बच्चे ने कुछ सोचते हुए कहा कि 'महाशय फिर आप मुझे 17 का पहाड़ा सुना दीजिये'. मुंगेरीलाल में बच्चे को गुस्से से घूरते हुए कहा कि 'पतंगबाज़ी के क्लास में सिर्फ़ इसी से जुडी बात होगी और कोई बात नहीं'. बच्चे ने बड़ी मासूमियत से अपने जेब में हाथ डाला और कंचे टटोलते हुए कहा - 'महाशय ! फिर शिक्षक दिवस पे आपको शिक्षकों से बात करनी चाहिए थी बच्चों से नहीं'.

शिक्षकों से बात करता तो वो मेरा इतिहास, भूगोल तो ठीक करते ही साथ में पतंग भी छीन के रख लेते. मुंगेरीलाल ये शब्द मुँह में बुदबुदाते हुए अपनी पतंग लपेटने लगे.

~
- नैय्यर / 09-09-2014

Monday 7 July 2014

याद

एक शायर था कभी
जो गुज़रते वक्तों के 
ज़र्रों के नीचे
दब के मर गया है कहीं
मगर कभी-कभी 
उसके लफ्ज़ 
जी उठते हैं
मेरी यादों के किसी कोने में
और ऐसा लगता है के जैसे
वो रत्ती भर ही सही
ज़िन्दा है मेरे अन्दर
.
.
.
ये वही तो है जो
मेरी शायरियों में ज़िन्दा है
और मैं ज़िन्दा हूँ
उसकी यादों में
~

© नैय्यर / 7-7-14

मुहब्बत

लैपटॉप के एक पुराने से फ़ोल्डर में 8 फ़रवरी 2013 को लिखी मेरी एक अधकचरी कविता मिली है. तब मैं कितना बेकार लिखता था, वैसे अच्छा तो अब भी नहीं लिखता मैं  
~

***_ मुहब्बत _***
============

तेरे नैनों के जलाशय में तैरते
आँसुओं की सतह पर
आस-व-निरास के हिंडोले में झूलते 
तुम्हारे सवाल मेरे लिए अजनबी नहीं हैं
तुमने पूछा था कि मुझे तुमसे मुहब्बत है या नहीं ?
और...हाँ
मैंने कहा था कि मुझे तुम से मुहब्बत नहीं
पर...शायद
तुम मेरी तरह आँखें नहीं पढ़ पाती
हाँ...मैंने कहा तो था कि मुझे तुम से मुहब्बत नहीं
मगर
वो सिर्फ एक ख़ूबसूरत मज़ाक़ था
और तुमने एक ज़रा सी बात पे
आँखों को दरिया बना डाला था
मैं तो तुम्हारे आँसुओं से
अपनी मुहब्बत की लौ भड़काना चाहता था
और
तुम्हारी आँसुओं से लबालब आखें
इस बात की सबूत हैं
की "मुझे तुमसे मुहब्बत है"
क्यूंकि तुम्हारे आंसू मेरी अमानत हैं
जो बहते भी तो मेरी वजह से हैं
आओ
मैं तुम्हारे आँसुओं की
एक-एक बूँद का क़र्ज़ उतार दूं
तुझे फिर से मैं संवार दूं
तेरा अंग-अंग निखार दूं
तेरी आँसुओं के जाम को
मैं होंठों से चुन के सहार लूं
आ तेरे अधरों का मैं रसपान करूँ
पलकों से धो लूं ज़ख़्म तेरे
कुछ अपनी रूह पे एहसान करूँ
तेरे अंगों का मधुशाला पी कर
पागल दीवाना हो जाऊं
तेरे होंठों पे रखूं होंठ गर
तो जल के परवाना हो जाऊं
तेरी जुल्फों की घनघोर घटा में
बन के नाचूँ मैं मोर सनम
तेरा चैन चौरा के, नींद चुरा के
कहलाऊँ मैं चोर सनम
हैं और बहुत से प्यार भरे कुछ लापरवाह इरादे
पर डरता हूँ की तेरे आँसुओं में बह न जायें ये सारे
है तुझे से इतनी गुज़ारिश मेरे महबूब सनम
के अब कभी न टूटने पाए अपना भरम
मेरी खुशियाँ तेरी खुशियाँ
तेरे ग़म हैं मेरे ग़म
तेरी आँख में मेरे सपने
मेरे सपने तेरे सपने
जैसे सारे सपने हैं बस अपने
सपनों का तो कोई बंटवारा नहीं
फिर...
क्यूँ तेरी आखों को मेरी आखों की भाषा
लगती है अजनबी सी
जब भी तू मुझ से सवाल करे है
मेरा दिल मुझ से बवाल करे हैं
तू देख ले मेरी आँखों को
इनमे हैं बस तेरा ही अक्स
बस पढ़ नहीं पाती आँखें तेरी
क्यूंकि
तेरी आँखें हैं धुंधली धुंधली
और आँसुओं से भरी तेरी धुंधली आखें
भला कैसे देखेंगी
मेरी आँखों में तेरी लिए चाहतों के समंदर को
मेरी धडकनों को सुनो ज़रा
ये हर पल कहती रहती है
"मुझे तुमसे मुहब्बत है"
तो अब मेरी धडकनों को करार दो
मेरा सारा क़र्ज़ उतार दो
आ जाओ मेरी बाँहों में
मुझे बेइन्तहा प्यार दो
और आँसुओं कि नदी में
सारा बोझ उतार दो
~

© नैयर / 8 फ़रवरी-2013
"किसी को चाहने की आदत जब ज़रुरत बन जाए तो ये मुहब्बत में मुब्तला होने की पहली तस्दीक़ होती है. वैसे, प्यार जब अपनी हद से गुज़र जाता है तो मुहब्बत की आगोश में आ जाता है और जब मुहब्बत अपनी दहलीज़ के बाहर क़दम रख देती है तो इश्क़ के जज़ीरे पे जा पहुँचती है, जहाँ से वापसी मुमकिन नहीं." - Naiyar Imam Siddiqui 

Tuesday 1 July 2014

मिर्ज़ा ग़ालिब से मुलाक़ात

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता

- मिर्ज़ा ग़ालिब

मैं जब कभी भी दिल्ली आता हूँ चचा ग़ालिब से मिलने ज़रूर जाता हूँ. पिछले दिनों यानी 21 जून को भी उनसे मिलने गया. उनके आरामगाह में जा के कहा - आदाब अर्ज़ है मिर्ज़ा ! मिर्ज़ा ने कोई जवाब नहीं दिया, देते भी कैसे? नाराज़ जो थे. आख़री बार ढंग से दिसम्बर 2009 में मिला था उनसे, जब कुहासे को चीरती हुई तिरछी नर्म धुप उनके आरामगाह के ऊपर पड़ रही थी और हमने ढेर सारी बातें की थी. उसके बाद जब भी दिल्ली आया मसरूफ़ियत की ज़ंजीर पहन के आया. बस चलते चलाते बस से ये निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन से निकलते हुए उनकी तरफ सलाम उछाल दिया, कभी आराम से बैठ के बात ही नहीं कर सका. सो, अब जो तपती दोपहर में उनसे मिलने गया तो उनकी नाराज़गी धुप की शिद्दत से कहीं ज़्यादा थी. चचा को मनाना था सो निकल पड़ा उनकी हवेली की तरफ़. पुरानी दिल्ली की तारीख़ी गालियाँ जिनकी हर ईंट से इतिहास की सिसकियाँ सुनाई देती हैं, उन्ही गलियों में एक है कूचा-ए-चीलान. जमा मस्जिद के गेट नम्बर-2 से मटिया महल होते हुए निकल गए उस तरफ़. उसी गली में मिला बरसों पुरानी हवेली का खंडहर, जाने वो हवेली किसक थी? हवेली से थोड़ी दूर आगे एक मस्जिद के दरवाज़े पे संगमरमर के छोटे से टुकड़े पे मस्जिद के नाम-पते के साथ लफ्ज़ 'गली मोमिन वाली' उगे हुए थे. याद आये आपको हाकिम मोमिन खान? नहीं न...उनका एक मशहूर शे'र सुनाता हूँ शायद याद आ जायें - ''वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो, वही वादा यानी निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो'' याद आ गए न मोमिन साहब? तो मैं बता रहा था कि इन मोमिन साहब की हवेली किसके क़ब्ज़े में है आज तक पता नहीं, अगर मस्जिद के दरवाज़े पे गली मोमिन वाली' नहीं उगा होता तो ये इतिहास भी मिटटी हो चूका होता कि इसी गली में उर्दू के मशहूर शायर हकीम मोमिम खान 'मोमिन' रहा करते थे कभी. कूचा-ए-चीलन की तंग गली से निकल के हम चूड़ीवालान की तरफ़ बढे. पुराने तर्ज़ की होटल पे बड़े ग्लास में चाय की चुस्कियों की बीच गुलज़ार की नज़्म होंटों से चिपकने लगी और ज्यूँ-ज्यूँ हम बल्लीमारान की तरफ़ बढे गुलज़ार के लफ्ज़ ज़िन्दा होने लगे.

बल्‍लीमारान के मुहल्‍ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नुक्‍कड़ पे बटेरों के क़शीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वाह,
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़के चलते हैं यहां
चूड़ीवालान के कटरे की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोलें
इसी बेनूर अंधेरी सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुराने सुख़न का सफ़ा खुलता है
असद उल्‍ला ख़ां ग़ालिब का पता मिलता है

- गुलज़ार

गली क़ासिम में चचा ग़ालिब की हवेली जो 1996 तक अवैध क़ब्ज़े में रही, उसमें हीटर फैक्ट्री चला करती थी. बड़ी मुश्किलों से सरकार कुछ हिस्सा ही ख़ाली करा पाई है. अभी भी अवैध क़ब्ज़े वाले क़ब्ज़ा जमाये बैठे हैं, उनकी आँखों में ज़रा भी शर्म नहीं. जो हिस्सा सरकार ख़ाली करा पाई है उसके एक हिस्से में गुलज़ार का दिया ग़ालिब चचा की एक खुबसूरत स्टेचू रखी है, उनके कुछ बेहतरीन शे'र उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी में लिखे गए हैं, एक खुबसूरत पेंटिंग लगाई गई है. कुल मिला के उनकी रूह और उनके दिल को बहलाने का साज़-वो-सामन इकठ्ठा किया गया है. भले ही चचा ग़ालिब अपने ससुर के पुश्तैनी क़ब्र जो निज़ामुद्दीन बस्ती में है वहाँ आराम कर रहे हैं लेकिन उनकी रूह तो हवेली में ही रची-बसी है. तभी तो जब उनकी हवेली गया और उनके अंगूठे को हिलाया तो ग़ज़ल लिखते हुए चौंक के मेरी जानिब देखा और आरामगाह पे किये सलाम का जवाब झट से दे दिया. पल में सारे गिले-शिकवे दूर हो गए. उनसे बिछड़ना आसान तो न था लेकिन मैं फिर से मिलने के लिए बिछड़ गया. हवेली से निकलते वक़्त हलकी-हलकी बूंदा-बांदी शुरू हो चुकी थी.

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आंख ही से ना टपका तो फिर लहू क्‍या है

- ग़ालिब

चचा ग़ालिब से मिलने के बाद हम फतेहपुरी मस्जिद की तरफ़ चले, मस्जिद के अहाते में बहुत देर तक बैठे रहे और नमाज़-ए-अस्र अदा कर के वहाँ से निकले. फतेहपुरी मस्जिद चांदनी चौक की पुरानी गली के पश्चिमी छोर पर है. इसे शाहजहाँ की पत्नियों में एक फतेहपुरी बेग़म नें 1650 में बनवाया. वो फतेहपुर की थीं इसलिए फतेहपुरी बेग़म के नाम से मशहूर हुईं. 1857 के सवतंत्रता संग्राम में मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फर के नेतृत्व में लड़ने वाले कई मुस्लिमों की कब्रें भी मस्जिद के अहातें में हैं. स्वतन्त्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने इस मस्जिद को नीलम कर दिया जिसे लाला चुन्नामल ने उस वक़्त मात्र 11000 रुपये में ख़रीद लिया. 1877 में चार गाँव के बदले में इस मस्जिद को वापस मुसलमानों को सरकार ने वापस कर दिया.

मैं सच कहूँगा तो न आएगा तुझे मुझ पे यकीं
आईने से पूछ वो सच परखने का हुनर जानता है

- नैय्यर

Adnan Kafeel साहब का शुक्रिया, जो मेरे साथ तपती दोपहरी में दिल्ली की गलियों की ख़ाक छानते रहे, यूँ कहूँ कि इन्होने ने ही मुझे इन गलियों और उनके इतिहास से आशना कराया को ग़लत न होगा. सारी तसवीरें इन्होने ही ली है जिसके लिए ढेर सारा शुक्रिया, पर मैंने इनकी कोई भी तस्वीर ढंग की न ली  फिर कभी सही...अब तो इन गलियों में मेरे क़दमों के चाप पड़ते रहेंगे. मिर्ज़ा को फिर से आदाब.
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Sunday 29 June 2014

कहानी / नश्तर

29 June 2014 at 18:30
''क्या हम कभी एक नहीं हो सकते?'' उन्होंने बड़ी आस से मुझ से पूछा.

"दो इंसान जो प्रेम बंधन में बंधना चाहें और समाज की दकियानूसी रिवाजों की वजह से एक ना हो पाएँ वो उस सुखी नदी के दोनों किनारों जैसे होते हैं जो जन्म से मृत्यु तक साथ तो चलते हैं मगर कभी मिल नहीं पाते. नदी की सुखी रेत अनबुझे आरज़ुओं, ख्वाहिशों जैसी होती जो गाहे बगाहे दिल में उठते जज़्बात की तर्जुमानी करते हैं और दोनों किनारों को अपनी आगोश में लेकर मुहब्बत की अलहदा क़ब्र बना देती है जिसके अन्दर दो मासूम दिलों के जज़्बात हमेशा-हमेशा के लिए घुट के मरने को मजबूर हो जाते हैं, पर भला मुहब्बत भी कभी मरती है क्या? मर जाती तो अगली नस्ल वालों तक मुहब्बत पहुँचती ही नहीं और ना वो मुहब्बत से आशना होते...पर मुहब्बत तो अमर है. ये जिस्म में नहीं रूह में परवान चढ़ती है. नस्ल-दर-नस्ल मुहब्बत किताबों में महफूज़ होता आया है. कामयाब मुहब्बत इतिहास के पन्नों में ज़िंदा हैं और नाकाम मुहब्बत अफसानों में" - मैंने उनकी बात के जवाब में कहा?

''मुझे आपकी बातें सुनने में तो अच्छी लगती हैं पर समझ में नहीं आती'' - फ़ोन पे उनकी ख़ुमार भरी मखमली आवाज़ उभरी.

''सच्ची मुहब्बत कभी नहीं मिलती, लैला-मजनूं, हीर-राँझा, शीरीं-फरहाद या रोमियो-जूलियट को देख लीजिये. दर हक़ीक़त प्यार का पहला, इश्क़ का दूसरा और मुहब्बत का तीसरा लफ्ज़ अधुरा है. जो ख़ुद में ही अधूरे हैं वो अपनी आगोश में आये परवानों को भला कैसे मुकम्मल कर दें? शम्मा के इश्क़ में परवाना जल के अपनी जान दे देता है और शम्मा सारी रात अकेले अपने आशिक़ के याद में जलती रहती है. सच्ची मुहब्बत जुदा हो के ही मुकम्मल होती है'' - मैंने उन्हें समझाने की आख़री कोशिश की.

''मैं नहीं मानती ये सब, कितने लोग तो मिलते हैं इसी दुनिया में...क्या वो सच्ची मुहब्बत नहीं करते? आप मुझे दिलासे ना दीजिये, मुझे पता है कि मैंने क्या खो दिया है और क्या खो रही हूँ'' - उसने बड़ी बेबसी से कहा. उनकी यही बेबसी नश्तर की तरह मेरे दिल के पार हो गयी.

''मेरे बस में होता तो मैं अपनी जान दे के भी उन लबों की लाली को जिंदा रखता जिन लबों ने मुझे मुझ से माँगा था. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी के लबों पे मेरा वजूद उनकी आरज़ू बन के उभरा और मेरा घर-परिवार जो सामाजिक कुरीतियों और समाज के ढकोसले को मुझ से ज़्यादा अहम समझता है उसने दो दिलों के बीच न मिटने वाली खाई पैदा कर दी और मैं अपने घरवालों के खिलाफ़ बग़ावत तक न कर सका, हालाँकि लड़ाई तो बहुत की मैंने पर समाज जीत गया, रीति-रिवाज जीत गए और मैं हार गया. भला हारा हुआ कोई शख्स किसी को कुछ दे सकता है? दिल की सल्तनत तो पहले ही उनके नाम कर दी है. जिसने सांसें उधार दी हैं, जिन्होंने नाम उधार दिया है वो जब चाहे सूद समेत वापस ले सकते हैं , मैं उफ़्फ़ तक न करूँगा क्यूंकि जिंदा लाश एताजाज़ नहीं किया करते" - मैं बस सोच के रह गया और करवट बदल के फोन दायें कान से हटा बायें कान से लगा लिया.

''रात के तीसरे पहर जब नींद की हलकी सी खुमारी मेरी आवाज़ को बोझल बना रही थी उनकी बातों के असर से दिल लहू-लहू हो रहा था. जवाब क्या देता मैं उनके सवाल का? मेरे पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं था, न अपना वजूद ना जवाब. ख़ामोश भी तो नहीं रह सकता था. बात को बदलने के लिए मैंने पूछ लिया कि आप कब से यूँ टहल-टहल के मुझ से बात कर रही हो, थकी नहीं क्या? जाइये सो जाइये फिर बात करेंगे.

''साफ़ कहिये ना कि आप मुझे भगाना चाहते हैं" - वही ख़ुमार भरी मखमली आवाज़ फिर से मेरे कानों के अंतर तहखानों तक उतर तो गयी मगर मुझे झिंझोड़ के रख दिया. इस लड़की से जीत पाना मुश्किल है, जाने दिलों के भेद कैसे पढ़ लेती है. हालाँकि दूर तो मैं भी नहीं होना चाहता था उनसे पर उनकी बातों का क्या जवाब देता मैं? हारने से तो बेहतर था कि इलज़ाम ले के जिया जाए, पर मुहब्बत में इलज़ाम कैसा? ये तो भरोसे हैं जो दिलों के गाँठ को मज़बूत करते हैं.

''आपकी आवाज़ बहुत सॉफ्ट है, मुझे बहुत पसंद है आपकी आवाज़'' कभी का कहा हुआ उनका फिकरा याद आ गया और उनकी बातों की सहर की ज़द में तो मैं था ही. बे-इख्तयार मेरे लबों पर फ़िल्म आँधी का ये गाना उभर आया -

तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई
शिकवा तो नहीं, शिकवा नहीं, शिकवा नहीं
तेरे बिना ज़िन्दगी भी लेकिन
ज़िन्दगी तो नहीं, ज़िन्दगी नहीं, ज़िन्दगी नहीं
तेरे बिना..

काश ऐसा हो
तेरे क़दमों से चुन के मंजिल चलें
और कहीं, दूर कहीं
तुम गर साथ हो
मंजिलों की कमी तो नहीं
तेरे बिना..

इस गाने को मैंने बहुत दिल और दर्द के साथ गाया और शायद ये गाने का ही असर था कि वो कुछ नार्मल हो गयीं थीं. जब गला रुन्धने लगा तो मैंने कहा कि अब सो जाइये अब कल बात करेंगे. शायद वो भी बहल गयीं थी जो तुरंत मान गयीं.

''ओए, सुबह हो गई?'' - दोपहर से ज़रा पहले उनका मैसेज आया.

''जी, मेरी सुबह तो कबकी हो चुकी है'' -मैंने जवाब दिया.

" :( मेरी सुबह तो दस बजे हुई" - फिर से मैसेज उभरा.

''अब मैंने उनको कैसे बताता कि सुबह तो उनकी होती है जो रात में सो जाते हैं, जिसने सारी रात आँखों में काटी हो उसकी कैसी सुबह?'' जिसके सीने में लफ़्ज़ों के नश्तर चुभे ho, जो एहसास को छलनी कर रहे हों, उसे भला नींद कैसे आएगी? उसकी सुबह कैसे होगी भला?

जाने ये नश्तर की चुभन थी या रतजगे का असर था के आँख फिर से गीली हो चुकी थी पर वो इस बात से बेख़बरमैसेज किये जा रही थीं. और फिर से अधुरा गीत मेरे होंटों पे सजने लगा.

जी में आता है
तेरे दामन में सर छुपा के हम
रोते रहें, रोते रहें
तेरी भी आँखों मेंआंसुओं की नमी तो नहीं
तेरे बिना...

जो भी हो ये उन्हीं का करम है कि मैं ये जान पाया के किसी पे मर के भी कैसे जिया जाता है. वो मेरी क़िस्मत में ना सही लेकिन उनका क़ुर्ब मेरी चाहतों की राह हमवार ज़रूर कर देगा.

इसी उम्मीद के साथ मैंने उनको चाँद में उकेरा है और इतनी आरज़ू की है कि बस आप एक बार ग़म की रात को रोक लो, चाँद को ढलने ना दो फिर रौशन सुबह तो अपना ही होगा.

तुम जो कह दो तो
आज की रात चाँद डूबेगा नहीं
रात को रोक लो
रात की बात है
और ज़िन्दगी बाकी तो नहीं
तेरे बिना..

~
© नैय्यर इमाम / 29-06-2014

Monday 16 June 2014

लघुकथा / जेल

***_ लघुकथा / जेल _*** 
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''कब तक मुँह बनाये बैठे रहोगे? तुम्हें यहाँ आये तीन दिन से ज़्यादा हो गया है और...''

बैरक का सबसे पुराना क़ैदी उस से बातें कर रहा था पर उसके लटके हुए मुँह को देख के उसने अपनी बात अधूरी रहने दी. 

बैरक में छाई ख़ामोशी से उकता कर थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा - ''कपड़े-लत्ते से तो तुम शरीफ़ लगते हो और शकल से पढ़े लिखे भी...फिर भला तुम किस जुर्म में अन्दर हो?''

''मैंने बस फेसबुक पर अपने दोस्त का क्रांतिकारी टाइप स्टेटस लाइक किया था और वो भी इसी जेल में किसी दुसरे बैरक में बंद है'' - उसने घुटने पे रखे हाथ पे ठोड़ी टिकाये हुए कहा.

''फिर उदास क्यूँ हो? क्रांतिकारियों के लिए तो जेल स्वर्ग हुआ करता है'' - उसने अपनी मुछों को मरोड़ते हुए कहा.

''या तो क्रांति बंद करो या जेल में जीने की आदत बना लो'' - बीड़ी सुलगाते हुए उसने अपना ज्ञान उंडेला और एक लम्बा कश खींच के धुवें के छल्ले उड़ाते हुए गुनगुनाने लगा.

''इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार
दीवार-वो-दर को ग़ौर से पहचान लीजिये''

~
- नैय्यर / 16-06-2014

Tuesday 10 June 2014

लम्हे

कुछ लम्हों का कोई रंग नहीं होता, न ख़ुशी में धुप खिलती है है ना ग़म में परछाई. ये लम्हे कभी नहीं खिलते, इनडोर प्लांट की तरह. पौधों के पत्ते और जिस्म में सांस सिर्फ 'ज़िंदा' होने के सबूत भर हैंकुछ लम्हों का कोई रंग नहीं होता, न ख़ुशी में धुप खिलती है है ना ग़म में परछाई. ये लम्हे कभी नहीं खिलते, इनडोर प्लांट की तरह. पौधों के पत्ते और जिस्म में सांस सिर्फ 'ज़िंदा' होने के सबूत भर हैं.

Wednesday 21 May 2014

"सिर्फ़ साँस चलने ही को तो जिंदा रहना नहीं कहते न? जिंदा लाशों के फेफड़े भी मरते दम तक वफ़ादारी निभाते हैं. दर-हक़ीक़त इंसान उसी पल मर जाता है जिस पल बे-ऐतबारी सलीब की मानिंद उसके ज़मीर पे ठोक दी जाती है और अपनी बे-गुनाही का सबूत देते देते कई बार मर मर के मरता है. रिश्तों में (से) ऐतबार का ख़ात्मा सिर्फ़ रिश्तों की मौत के वजह नहीं होते बल्कि रिश्तों के दोनों डोर से बंधे इंसानों की भी मौत हो जाती है. ये अलग बात है कि किसके हिस्से में मौत के कितने टुकड़े आते हैं. जिंदा इंसान जब अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाता तो जिंदा लाशें भला इस मसले का क्या हल देंगी? शायद मौत ही बेगुनाही साबित कर दे. पर क्या बे-ऐतबारी और इलज़ाम देने वालों को मौत कि सच्चाई पे यकीन होगा? जिसे इन्सान की सच्चाई और उसके लफ़्ज़ों की सच्चाई पे ऐतबार नहीं उसे मौत पे भला क्यूँ और कैसे ऐतबार हो जायेगा?" - Naiyar

Sunday 11 May 2014



***_ माँ _***
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ये दुनिया
दुत्कारती है मुझे
मेरे नाम की वजह से
मेरे चेहरे की बनावट में ढूंढती है
ग़रीबी का पता कोई

मेरे कुरूप चेहरे
बहार निकले दाँत
और हकला के बोलने की बीमारी
ये सभी पहचान हैं मेरी
बहरी दुनिया वालों के लिए
उनके लिए जो अपनी
ज़रुरत और अपने फायदे के लिए ही
मजबूरन मिलते हैं मुझ से

फिर न जाने किस वजह से
मेरे चेहरे पे मुनाफा तौलते हैं
अपने नफ़रत के कारोबार का
उस चेहरे पे जिसपे कभी
बिला-ज़रुरत वो देखना भी गवारा न करें

ऐसी मतलबी और कुरूप दुनिया से
हर लम्हा मेरी 'माँ' की दुआएँ बचाती हैं मुझे
वो माँ जिसने मेरी सूरत देखे बिना
सींचा है मुझे अपने लहू से
और मेरी हर ऐब के उसने
छुपाया है अपने आँचल के तले

ऐसी माँ की क़दम-बोसी के लिए
सैकड़ों बार भेजता हूँ लानत मैं
ऐसी खुदगर्ज़ और नफरत से भरी
इंसानों की इस बदरंग दुनिया पर

~
© नैय्यर / 11-05-2014

Wednesday 7 May 2014

"नस्ल-दर-नस्ल मुहब्बत किताबों में महफूज़ होता आया है। कामयाब मुहब्बत इतिहास के पन्नों में ज़िंदा हैं और नाकाम मुहब्बत अफसानों में।" - Naiyar Imam Siddiqui

(नोट : कुछ मुहब्बत जो एकतरफ़ा हैं वो मेरी आँखों में ज़िंदा हैं )
"न तो मुझे जीने की आरज़ू है और ना ही मरने की तमन्ना, बस इतनी हसरत है के तुम बात-बे-बात मुझसे रूठती रहो और मैं तुम्हें मनाने के लिए खुदा से सांस उधार मांगता रहूँ. कम से काम खुदा का एहसान तो तुम्हारे आंसुओं के बोझ से काम ही होगा. खुदा के करोड़ों एहसानात के बोझ मैंने बारहा उठाये हैं, पर न जाने क्यों मैं तुम्हारे आंसुओं का बोझ उठाने से क़ासिर हूँ...शायद मुझे तुमसे मुहब्बत हो गयी है,... और खुदा से? खुदा से हम मुहब्बत करते ही कब हैं? उसे तो बस ज़रूरत के वक़्त ही याद करते हैं...जैसे मैं मुहब्बत तुमसे करता हूँ पर सांस उधार मांगते वक़्त खुदा याद आ गया. खुदा खैर करे" - Naiyar

Thursday 24 April 2014

लेकिन

दोपहर की चिलचिलाती धुप में सड़कों पे सन्नाटा फैला हुआ था। थोड़ी-थोड़ी देर में इक्का-दुक्का राहगीर दिख जाते। मैं तेज़ी से साइकिल दौड़ाते स्टेशन की तरफ़ जा रहा था। स्टेशन वाली सड़क शहर की मुख्य सड़क से अलग थी इसीलिए भीड़-भाड़ काम ही हुआ करती है। स्टेशन परिसर में रिक्शे और ताँगे वाले सीट पर सर के नीचे हाथ बिछाये उसके ऊपर गमछा रखे ऊँघ रहे थे। सुचना केंद्र से पता चला कि दोपहर में आने वाली पैसेंजर के आने में अभी काफ़ी वक़्त था क्यूंकि ट्रेन देरी से चल रही थी। 

वक़्त गुज़ारी के लिए मैं प्लेटफार्म पे टहलने लगा। अंग्रेज़ों के ज़माने का पुरानी तर्ज़ का बना ये स्टेशन काफ़ी ख़ूबसूरत है और बड़ा भी। बचपन में अक्सर हम रविवार को स्टेशन का एक चक्कर ज़रूर लगाते और मौसमी फ़ल और फ़ूल चुन के जेब में भर लिया करते थे। जिन जवान पेड़ों पर हम बचपन में धमाचौकड़ी मचाया करते थे वो अब बूढ़े हो चुके थे। झुकी हुई बूढ़ी डालियों में वही प्यार और स्नेह देखने को मिला। दिल तो बहुत मचला पर इस उम्र में अब पेड़ पे चढ़े कौन?

चुनावी मौसम होने के कारण स्टेशन पे पुलिस और सेना के जवानों की गिनती बढ़ गयी है। पहले भी हमेशा कम से कम दर्जन भर पुलिस तो स्टेशन पे रहते ही थे। उनका नहाना-धोना, खाना-पीना, सोना-जागना सब स्टेशन परिसर में ही होता है। उन्हीं पुलिस वालों में एक रघुनन्दन मिश्र भी हैं जो मुझे बचपन से जानते हैं। गाली बहुत बकते हैं, शायद पुलिस में रहने का असर हो, पर इंसान बहुत मस्त हैं। वो दोपहर के खाने के लिए लिट्टी सेंक रहे थे और उनका सहयोगी अपने हाथ से दोगुने सिल पर चटनी पीस रहा था। 

मैं घर से खा के चला था, फिर भी उनके कहने पर दो लिट्टी और चोखा एक प्लेट में ले कर खाया, बहुत स्वादिष्ट था। खाने के बाद मैं प्लेटफार्म के पूरब तरफ़ लगे हैंडपंप पे पानी पीने गया। पानी पी ही रहा था कि देखा पुराने बरगद के पेड़ के पास कुछ लोग एक बूढ़ी अौरत को मार रहे थे। मैं उत्सुकता से उधर गया के देखूँ बात क्या है? उस बुढ़िया का चेहरा जाना-पहचाना लगा। उसके शरीर पे नाम मात्र का कपड़ा था जो कि कई जगह से फटा हुआ था। शकल जानी-पहचानी थी सो मैं मिश्र जी के पास वापस पूरी कहानी जानने पहुँचा। 

मिश्र जी ने जो बताया उसपे यक़ीन करना मुश्किल था, पर सच भी तो वही था। कुम्हारों के टोलों में जो सबसे पहले तीन मंज़िला मकान बना वो उन्हीं का था। पति डाकघर के पेंशन विभाग में बाबू थे। एक बेटा और एक बेटी, छोटा और सुखी परिवार था। बेटी की शादी पाँच साल पहले पड़ोस के जिले में किया था जो शादी के दूसरे ही साल प्रसव के दौरान चल बसी। बाप इसी ग़म में धीरे-धीरे घुलने लगे। बेटे की शादी उन्होंने लगभग सात महीने बाद कर दी कि दिल और तबियत संभल जाए मगर होनी को कौन टाल सकता है। शादी के दो महीने बाद बाप स्वर्ग सिधार गया और बेटे को बाप की जगह अनुकम्पा पर नौकरी मिल गई। ज़िन्दगी की शाख़ पर नयी कोंपल आती इस से पहले बुढ़िया उजड़ गयी। 

उसकी बहु ने अपनी सास पे चुड़ैल होने का इलज़ाम लगाया। ननद और ससुर की मौत का ज़िम्मेदार बता तरह-तरह से सताने लगी। हद्द तो तब हो गयी जब बेटे ने पत्नी की बात मान अपनी ही माँ को बेघर कर दिया। मैंने कहीं पढ़ा था कि "माँ वो अज़ीम हस्ती है जो पागल भी हो जाए तो अपने बच्चों को नहीं भूलती।" 'लेकिन'… बच्चे? जो अपनी माँ को दर-ब-दर रुस्वा करने और पुलिस वालों के जूठन पर मरने के लिए छोड़ दे वो क्या इंसान कहलाने के क़ाबिल है?

मेरा मन बहुत खट्टा हो चूका था। जाना ज़रूरी था सो गया, अँधेरा होने तक वापस भी आ गया। वापसी में मैंने अपनी साइकिल कुम्हारों के टोलों की तरफ़ मोड़ दी। तीन मंज़िला मकान रौशनी से जगमगा रहा था। बाहर बरामदे में वो कमज़र्फ़ अपने डेढ़-दो साल के बच्चे के साथ बैठा किसी बात पे बैठा हँस रहा था। जी तो चाहा कि जा के पूछूँ के किसी माँ को उसके बच्चे से जुदा करके तुम किस हक़ से अपने बच्चे के साथ हँस-बोल रहे हो। पर ये सोच कर क़दम आगे नहीं बढ़ा कि जिसे अपनी माँ का कोई ग़म नहीं उसे मेरी बात से क्या सरोकार। उसकी सोच पर मातम करते हुए मैंने अपनी साइकिल घर की मोड़ दी। 

~
© नैय्यर / 25-04-2014

Tuesday 22 April 2014

ऐतबार

उसे गए हुए डेढ़ दिन से ज़्यादा हो गए थे मगर न पहुँचने की ख़बर उसने दी न वापस आने की। हालाँकि काम क्या था उसने मुझे बताया भी नहीं था मगर मैंने अपने अंदाज़े से जितना जाना उस हिसाब से उसे रात दस बजे तक तो वापस आ ही जाना चाहिए था। सफर भी ज़्यादा लम्बा नहीं था। तीन-चार घंटे ट्रेन में और एक-डेढ़ घंटे बस में। और काम, मेरे हिसाब से तो तीन-चार घंटे से ज़्यादा का हो नहीं सकता। सुबह छह बजे के क़रीब उसने ट्रेन पकड़ी होगी और अब इतना वक़्त गुज़र जाने के बाद भी जाने क्या बात थी कि कोई संदेसा ही नहीं आया। 

वो हमेशा से लापरवाह है। लापरवाह कहूँ या अनापरस्त? जो भी हो, पर उसके अंदर अना कूट-कूट के भरी हुई है। न जाने ऊपर वाला सारे ऊँचे नाक वालों को मेरी ही ज़िन्दगी में क्यों भेज देता है? सभी के ऊँचे नाक का भरम रखने के चक्कर में मैं कितना मजरूह हुआ किसी को जानने की फुर्सत ही नहीं रहती। रोज़ एक क़तरा जीता हूँ तो एक टुकड़ा मरता हूँ। क़तरे और टुकड़े के गणित का ये घाटा शायद मेरे मरने पे ही पूरा हो। जाने ये मैंने कैसा रोग पाला है जिसमें नुकसान हमेशा मैंने उठाया है पर परवाह किसे है। 

मैं भी तो डेढ़ दिन में ही घबरा गया। क्या करूँ, हमेशा इसी दिल की वजह से उसकी महफ़िल में रुस्वा हुआ और उसे ये सब छलावा लगता है। पिछली दफ़ा पुरे पंद्रह दिन तक सन्नाटा पसरा रहा और उसके पहले पैंतालीस दिन तक मौत जैसी तवील ख़ामोशी। अगर सिर्फ़ साँस चलने को ही ज़िंदा रहना कहते हैं तो हाँ, मैं ज़िंदा था मगर सिर्फ़ उसे सोचने की वजह से। लड़ाइयाँ कौन से रिश्ते में नहीं होती? मगर कोई ख़ामोशी की चादर तो नहीं ओढ़ लेता? होंठों को 'चुप' के लेप से कड़वा तो नहीं करता। पिछले साठ दिन जो मैंने दिल पे गिरह बाँध रखे हैं उनमें से पैंतालीस दिन तक मैंने उसे मनाने में जितने लफ़्ज़ ज़ाया किये हैं उतने लफ़्ज़ों में मेरे कई नॉवेल छप जाते मगर फिर भी चुप के सन्नाटे में कोई आवाज़ नहीं गूँजी। मेरे पास अब ख़रचने को लफ़्ज़ बचे ही नहीं थे सो पिछले दफ़ा के पंद्रह दिन मैंने चुपचाप गुज़ारे। मुझसे मेरी ख़ामोशी का हिसाब माँगा जाता है पर ख़ुद हिसाब देने को तैयार नहीं। जैसे मैं उनकी सलतनत का बँधुआ मज़दूर हूँ और वो मेरी साँसों पे हुक़ूमत करने वाले। 

जाने वो मेरी कौन सी अदा है जिसने मुझे उसकी नज़रों में मश्कूक बना दिया है। शक का नाग हमेशा उसके दिमाग़ में मेरा नाम आते ही फुंफकारने लगता है। बारहा मैंने सफाई दी मगर उसके दिल की क़दूरत मेरे लिए बढ़ती ही गयी। शायद सफाई देना ही सबसे बड़ी ग़लती थी मेरी। जिसे मुझ पे भरोसा नही उसे भला मेरे लफ़्ज़ों पे क्या ऐतबार... मगर मैं अपने दिल का क्या करूँ जो उसके नाम के ताल पे ही थिरका जा रहा है। शायद इसे ही मुहब्बत कहते हैं, जो धुत्कार देता है उसे ही अपनी जागीर नीलम कर देता है ये दिल। 

लगभग पैंतालीस घंटे के बाद, मेरे संदेसे के नौ घंटे बाद ही सही उनका संदेसा आया - "मुझे याद करने के लिए ढेर सारा आभार, आने की ख़बर देते लेकिन सोचा के देखूं लोगों को मेरी याद कब आती है"। ये 'आभार' तब से मेरे दिल पे बोझ की तरह पड़ा हुआ है। जिसके इंतज़ार में मैंने एक-एक पल मर-मर के जिया उसे इतना भी यक़ीन नहीं कि मैंने उसे याद किया होगा। सितमगर! ऐतबार की जिस सीढ़ी को रौंद कर तुम बे-ऐतबारी की मंज़िल पर पहुँचे हो मैं उसी सीढ़ी के पहले पायदान पर उम्र के आख़िरी पड़ाव तक तुम्हारे लौट आने का इंतज़ार करूंगा। 

~
© नैय्यर / 23-04-2014

Thursday 17 April 2014

***_ लघु कथा / मौत _***
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"तुम मेरे बग़ैर जी तो लोगे न?" उसने अपना ट्राली बैग घसीट के गाड़ी में रखते हुए पलट के आख़री बार मुझसे पूछा। 

हाँ ! मरता तो मैं तुम पे तुम्हारी संगत में था। इंसान हमेशा अकेले ही जीता आया है, किसी पे मरने के लिए किसी का प्यार चाहिए। ज़िंदा रहने के लिए सांसों का साथ ही बहुत है। मैंने अशोक के पेड़ से टेक लगाये हुए कहा। 

पक्का? उसने हैरत से मुझे देखा। 

इस बार मैंने अपना सर 'हाँ' कि मुद्रा में हिलाया, मुँह से कुछ नहीं कहा।

तो फिर वाद करो...

मेरे पास देने के लिए सिर्फ़ मेरी जान थी जो मैं तुम्हें दे चूका हूँ। ज़िंदा लाश वादा नहीं किया करते।

~

© नैय्यर / 18-04-2014 
***_ لمحہ _***
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وو ایک لمحہ کہ جس میں میں نے
تیرے نام سب کچھ لکھ دیا تھا
وہی ایک لمحہ میری ہم نفس
میری عمر بھر کا سوغات تھا
میری منزلیں، میری چاہتیں
میری حسرتیں، میری جستجو
اس ایک لمحے کے گواہ ہیں
کہ جس پل میں میں نے
اپنی زندگی تیرے نام کی
 انہی لمحوں کی دسترس میں
میری کچھ سانس لپٹی پڑی ہوئی ہے
کسی لمحے تمہیں جو ہو فرصتیں
مجھے آزاد کر دے میری سانس سے

~
نیّر / ١٧-٤-٢٠١٤ © 
 

***_ कहानी / चाशनी _***
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सुबह-सुबह अख़बार वाले ने अख़बार फ़ेंका और उसने बम। रोज़ की यही कहानी थी। जैसे ही बरामदे में अख़बार गिरने की आवज़ आती, किचन से उसके बम के गोले चलने चालू हो जाते। ये सिलसिला पिछले दस सालों से जारी था। मुझे न जाने अख़बार पढ़ने का ऐसा क्या जुनून था कि बिना सारे पेज इत्मीनान से पढ़े ऐसा लगता ही नहीं था कि मैंने अख़बार पढ़ा है। जितनी देर तक मैं ख़बरों को चाटता रहता वो लगातार किचन से मेरा मनपसंद नाश्ता तैयार करते हुए तेज़ आवाज़ में बड़बड़ाये जाती।

कॉलेज के दिनों में उसे मेरे पढ़ने की यही आदत बहुत पसंद थी। हालाँकि, मैं ज़्यादा क़ाबिल और पढ़ने में तेज़ तो नहीं था मगर कोर्स के अलावा भी पढ़ने की आदत न जाने कब और कहाँ से मुझे लग गयी थी। रात को जब तक किसी किताब के दो-चार पन्ने न पढ़ता नींद ही नहीं आती थी। क्लासेज बँक करके जब सारे यार-दोस्त कैंटीन की ख़ुशगप्पियों में मशग़ूल रहते मैं लाइब्रेरी में किसी न किसी किताब को चाटने में लगा रहता। निर्मला, आग का दरिया, माँ, आनंदमठ, गोदान, हाथ हमारे क़लम हुए, मैला आँचल, अंगूठे का निशान, कस्तूरी कुण्डल बसे इत्यादि उन्हीं वक़्तों में मैंने पढ़े थे। कॉलेज के सालाना जलसे में जब मैं बोलता तो बड़े-बड़े साहित्यकारों की बातों को भी उसमें जोड़ता और वो उन बातों से मेरी बेख़बरी में ही प्रभावित होती रही।

हमारे कॉलेज के ज़माने में लड़के-लड़कियों की दोस्ती थोड़ी-बहुत आम हो चुकी थी मगर सिर्फ कॉलेज की चारदीवारी तक ही। कॉलेज के बाहर जैसे सब एक दूसरे के लिए अजनबी से थे। कहीं किसी मोड़ पे टकरा जाने पर भी सिर्फ आँख चौड़ी करते, दूसरे पल आँख झुका अपनी-अपनी राह पकड़ पकड़ लेते। कॉलेज के मैगज़ीन में मेरी एक लम्बी कविता 'प्रेम' छपी। उसे मेरे जैसे विद्रोही व्यक्ति से ऐसे किसी विषय पर लिखने की क़तई आशा नहीं थी। उसने वो कविता पढ़ी, और अगले दिन मुझे एक छोटा सा नोट पकड़ा दिया। मैंने नोट पढ़ा। मुझे उस से ये आशा नहीं थी की वो जज़्बातों को समझने में इतनी माहिर है। मैं तो उसे बस कैंटीन में हो-हल्ला करने वाली बहुत सी लड़कियों में से एक लड़की मानता था। लड़कियों में ये गुण शायद जन्मजात होता है। नोट के बदले मैंने भी उसे एक नोट शुक्रिये के साथ पकड़ा दिया जो नोट तो क़तई नहीं था, अलबत्ता ख़त ज़रूर कहा जा सकता है उसे।

बस, उस दिन के बाद से ख़तों का सिलसिला किताब की लेन-देन के साथ बढ़ने लगा। उसे गोर्की की माँ पसंद नहीं आई। कहने लगी की रुसी क्रांति और एक क्रन्तिकारी माँ-बेटे की कहानी मेरे पल्ले नहीं पड़ती, जाने तुमने कैसे पढ़ा। मैंने कहा की मैंने उस क्रन्तिकारी लड़के की जगह खुद को रख के पढ़ा, तुम भी कोई किरदार ढूँढ लो अपने मुताबिक़ फिर तुम भी समझ पाओगी इस कहानी को। कहने लगी कि मैं जब माँ बनूँगी तो ख़ुद को माँ कि जगह रख के फिर से पढूंगी, और आज गोर्की कि माँ उसकी पसंदीदा किताबों में से एक है। उस दिन मैंने उसे राजिंदर सिंह बेदी कि कहानी 'अपने दुःख मुझे दे दो' पढ़ने को दी।

जाने उस कहानी का उसपे क्या असर हुआ कि अगले दो दिन वो कॉलेज ही नहीं आई। जब तीसरे दिन आई तो लेक्चर हाल के पीछे अमलतास के पुराने पेड़ के पास चलने को कहने लगी। हम दोनों ने वहाँ तक साथ-साथ मगर ख़ामोशी से सफर किया। अमलतास से पीले फूल हरे घास पे बिखरे वजूद का ही हिस्सा लग रहे थे। मैंने पेड़ के तने से ख़ुद को टिकाते हुए कहा - बोलो क्या बात है? मेरे ठीक सामने बैठते हुए उसने चुपचाप एक लम्बा ख़त थमा दिया और ख़ुद फूल चुन खेलने लगी मगर उसकी निगाह मेरे चेहरे पर ही जमी थी, जिसमें उस दो दिन की ग़ैरहाज़री की सारी रूदाद लिखी थी और भी बहुत कुछ था। सबसे बड़ी बात ये कि वो अपनी बाक़ी की ज़िन्दगी मेरे साथ बाँटना चाहती थी। ख़त मैंने बहुत ख़ामोशी से पढ़ा, हाँ कुछ जज़्बात भले ही चेहरे ने उजागर कर दिए हों पर मैंने कुछ नहीं कहा।

मेरी ख़ामोशी उसे शायद बहुत खल रही थी। झुंझलाते हुए उसने कहा कुछ तो बोलो। मैंने कहा - मेरे साथ निबाह कर पाओगी? मुझे किताबों से अज़ीज़ कोई नही, दोस्त-यार, नाते-रिश्तेदार भी नहीं। उसकी हाँ ने मेरा ढेरों ख़ून बढ़ा दिया। मैं कहाँ आम से शकल का मामूली सा लड़का और कहाँ वो ख़ूबसूरती का मुजस्समा। मैं नाते-रिश्तेदार को किसी गिनती में लाता नही था और घरवालों ने मेरे निकम्मेपन की वजह से मुझ से राब्ता ही न रखा था। उसके घर में थोड़ा हो-हल्ला, हाय-तौबा मचा पर लड़की की ज़िद की वजह से सब मान गए।

एक ख़ूबसूरत शाम वो बहुत सजी-धजी मेरी बेरंग ज़िन्दगी में बहार ले के आ गयी। शुरू-शुरू में तो मैं उसे ही पढ़ता। उसके चेहरे पर ऊँगली की पोरों से नज़्म लिखता। होंठों की नमी ऊँगली से बोर उसकी कमर पे अपना नाम लिखता। पर, मैं शायर तो था नहीं, जल्दी इस इस रूमानी दुनिया से मेरा हुक्का-पानी उठा गया, मैं फिर से अपनी किताबों में गुम हो गया। हालाँकि मैं उसे ढेर सारा वक़्त देता मगर उसने तो मेरी किताबों, मेरे पढ़ने-लिखने को अपना सौतन समझ लिया था।

हम रोज़ सुबह नाश्ते की टेबल पर लड़ते पर हर रोज़ हमारा प्यार और गहरा होता जाता। वो दिल की बुरी नहीं है, उसके गोले-बारूद सिर्फ तभी चलते हैं जब मैं पढता हूँ। वरना यूँ तो घर में ख़ामोशी पसरी रहती है। मुझे ख़ामोशी पसंद नहीं, मुझे उसका बोलना बोलना पसंद है और मैं दिल के न चाहने के बावजूद भी किताब ले के बैठ जाता हूँ और उसकी बमबारी शुरू हो जाती है। मैंने उसे ये बात कभी बताना ही नहीं चाहता की जितनी मिठास तुम्हारी बमबारी में है उतना मीठा तो शहद भी नहीं है। बस रोज़ सुबह अख़बार के गिरने से जो आवाज़ होती है उसी के साथ हमारे रिश्ते की चाशनी उसके होंटों से टपकने लगती है। सबकुछ कह जाना ही तो प्यार नहीं होता न? प्यार तो सिर्फ एहसास है जिसे महसूस किया जा सकता है। कह देने से बहुत से लफ्ज़ अपनी तासीर खो देते हैं और मैं अपनी मुहब्बत के ज़ायक़े का कोई भी तासीर खोना नहीं चाहता।

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© नैय्यर /16-04-2014