Thursday 24 April 2014

लेकिन

दोपहर की चिलचिलाती धुप में सड़कों पे सन्नाटा फैला हुआ था। थोड़ी-थोड़ी देर में इक्का-दुक्का राहगीर दिख जाते। मैं तेज़ी से साइकिल दौड़ाते स्टेशन की तरफ़ जा रहा था। स्टेशन वाली सड़क शहर की मुख्य सड़क से अलग थी इसीलिए भीड़-भाड़ काम ही हुआ करती है। स्टेशन परिसर में रिक्शे और ताँगे वाले सीट पर सर के नीचे हाथ बिछाये उसके ऊपर गमछा रखे ऊँघ रहे थे। सुचना केंद्र से पता चला कि दोपहर में आने वाली पैसेंजर के आने में अभी काफ़ी वक़्त था क्यूंकि ट्रेन देरी से चल रही थी। 

वक़्त गुज़ारी के लिए मैं प्लेटफार्म पे टहलने लगा। अंग्रेज़ों के ज़माने का पुरानी तर्ज़ का बना ये स्टेशन काफ़ी ख़ूबसूरत है और बड़ा भी। बचपन में अक्सर हम रविवार को स्टेशन का एक चक्कर ज़रूर लगाते और मौसमी फ़ल और फ़ूल चुन के जेब में भर लिया करते थे। जिन जवान पेड़ों पर हम बचपन में धमाचौकड़ी मचाया करते थे वो अब बूढ़े हो चुके थे। झुकी हुई बूढ़ी डालियों में वही प्यार और स्नेह देखने को मिला। दिल तो बहुत मचला पर इस उम्र में अब पेड़ पे चढ़े कौन?

चुनावी मौसम होने के कारण स्टेशन पे पुलिस और सेना के जवानों की गिनती बढ़ गयी है। पहले भी हमेशा कम से कम दर्जन भर पुलिस तो स्टेशन पे रहते ही थे। उनका नहाना-धोना, खाना-पीना, सोना-जागना सब स्टेशन परिसर में ही होता है। उन्हीं पुलिस वालों में एक रघुनन्दन मिश्र भी हैं जो मुझे बचपन से जानते हैं। गाली बहुत बकते हैं, शायद पुलिस में रहने का असर हो, पर इंसान बहुत मस्त हैं। वो दोपहर के खाने के लिए लिट्टी सेंक रहे थे और उनका सहयोगी अपने हाथ से दोगुने सिल पर चटनी पीस रहा था। 

मैं घर से खा के चला था, फिर भी उनके कहने पर दो लिट्टी और चोखा एक प्लेट में ले कर खाया, बहुत स्वादिष्ट था। खाने के बाद मैं प्लेटफार्म के पूरब तरफ़ लगे हैंडपंप पे पानी पीने गया। पानी पी ही रहा था कि देखा पुराने बरगद के पेड़ के पास कुछ लोग एक बूढ़ी अौरत को मार रहे थे। मैं उत्सुकता से उधर गया के देखूँ बात क्या है? उस बुढ़िया का चेहरा जाना-पहचाना लगा। उसके शरीर पे नाम मात्र का कपड़ा था जो कि कई जगह से फटा हुआ था। शकल जानी-पहचानी थी सो मैं मिश्र जी के पास वापस पूरी कहानी जानने पहुँचा। 

मिश्र जी ने जो बताया उसपे यक़ीन करना मुश्किल था, पर सच भी तो वही था। कुम्हारों के टोलों में जो सबसे पहले तीन मंज़िला मकान बना वो उन्हीं का था। पति डाकघर के पेंशन विभाग में बाबू थे। एक बेटा और एक बेटी, छोटा और सुखी परिवार था। बेटी की शादी पाँच साल पहले पड़ोस के जिले में किया था जो शादी के दूसरे ही साल प्रसव के दौरान चल बसी। बाप इसी ग़म में धीरे-धीरे घुलने लगे। बेटे की शादी उन्होंने लगभग सात महीने बाद कर दी कि दिल और तबियत संभल जाए मगर होनी को कौन टाल सकता है। शादी के दो महीने बाद बाप स्वर्ग सिधार गया और बेटे को बाप की जगह अनुकम्पा पर नौकरी मिल गई। ज़िन्दगी की शाख़ पर नयी कोंपल आती इस से पहले बुढ़िया उजड़ गयी। 

उसकी बहु ने अपनी सास पे चुड़ैल होने का इलज़ाम लगाया। ननद और ससुर की मौत का ज़िम्मेदार बता तरह-तरह से सताने लगी। हद्द तो तब हो गयी जब बेटे ने पत्नी की बात मान अपनी ही माँ को बेघर कर दिया। मैंने कहीं पढ़ा था कि "माँ वो अज़ीम हस्ती है जो पागल भी हो जाए तो अपने बच्चों को नहीं भूलती।" 'लेकिन'… बच्चे? जो अपनी माँ को दर-ब-दर रुस्वा करने और पुलिस वालों के जूठन पर मरने के लिए छोड़ दे वो क्या इंसान कहलाने के क़ाबिल है?

मेरा मन बहुत खट्टा हो चूका था। जाना ज़रूरी था सो गया, अँधेरा होने तक वापस भी आ गया। वापसी में मैंने अपनी साइकिल कुम्हारों के टोलों की तरफ़ मोड़ दी। तीन मंज़िला मकान रौशनी से जगमगा रहा था। बाहर बरामदे में वो कमज़र्फ़ अपने डेढ़-दो साल के बच्चे के साथ बैठा किसी बात पे बैठा हँस रहा था। जी तो चाहा कि जा के पूछूँ के किसी माँ को उसके बच्चे से जुदा करके तुम किस हक़ से अपने बच्चे के साथ हँस-बोल रहे हो। पर ये सोच कर क़दम आगे नहीं बढ़ा कि जिसे अपनी माँ का कोई ग़म नहीं उसे मेरी बात से क्या सरोकार। उसकी सोच पर मातम करते हुए मैंने अपनी साइकिल घर की मोड़ दी। 

~
© नैय्यर / 25-04-2014

Tuesday 22 April 2014

ऐतबार

उसे गए हुए डेढ़ दिन से ज़्यादा हो गए थे मगर न पहुँचने की ख़बर उसने दी न वापस आने की। हालाँकि काम क्या था उसने मुझे बताया भी नहीं था मगर मैंने अपने अंदाज़े से जितना जाना उस हिसाब से उसे रात दस बजे तक तो वापस आ ही जाना चाहिए था। सफर भी ज़्यादा लम्बा नहीं था। तीन-चार घंटे ट्रेन में और एक-डेढ़ घंटे बस में। और काम, मेरे हिसाब से तो तीन-चार घंटे से ज़्यादा का हो नहीं सकता। सुबह छह बजे के क़रीब उसने ट्रेन पकड़ी होगी और अब इतना वक़्त गुज़र जाने के बाद भी जाने क्या बात थी कि कोई संदेसा ही नहीं आया। 

वो हमेशा से लापरवाह है। लापरवाह कहूँ या अनापरस्त? जो भी हो, पर उसके अंदर अना कूट-कूट के भरी हुई है। न जाने ऊपर वाला सारे ऊँचे नाक वालों को मेरी ही ज़िन्दगी में क्यों भेज देता है? सभी के ऊँचे नाक का भरम रखने के चक्कर में मैं कितना मजरूह हुआ किसी को जानने की फुर्सत ही नहीं रहती। रोज़ एक क़तरा जीता हूँ तो एक टुकड़ा मरता हूँ। क़तरे और टुकड़े के गणित का ये घाटा शायद मेरे मरने पे ही पूरा हो। जाने ये मैंने कैसा रोग पाला है जिसमें नुकसान हमेशा मैंने उठाया है पर परवाह किसे है। 

मैं भी तो डेढ़ दिन में ही घबरा गया। क्या करूँ, हमेशा इसी दिल की वजह से उसकी महफ़िल में रुस्वा हुआ और उसे ये सब छलावा लगता है। पिछली दफ़ा पुरे पंद्रह दिन तक सन्नाटा पसरा रहा और उसके पहले पैंतालीस दिन तक मौत जैसी तवील ख़ामोशी। अगर सिर्फ़ साँस चलने को ही ज़िंदा रहना कहते हैं तो हाँ, मैं ज़िंदा था मगर सिर्फ़ उसे सोचने की वजह से। लड़ाइयाँ कौन से रिश्ते में नहीं होती? मगर कोई ख़ामोशी की चादर तो नहीं ओढ़ लेता? होंठों को 'चुप' के लेप से कड़वा तो नहीं करता। पिछले साठ दिन जो मैंने दिल पे गिरह बाँध रखे हैं उनमें से पैंतालीस दिन तक मैंने उसे मनाने में जितने लफ़्ज़ ज़ाया किये हैं उतने लफ़्ज़ों में मेरे कई नॉवेल छप जाते मगर फिर भी चुप के सन्नाटे में कोई आवाज़ नहीं गूँजी। मेरे पास अब ख़रचने को लफ़्ज़ बचे ही नहीं थे सो पिछले दफ़ा के पंद्रह दिन मैंने चुपचाप गुज़ारे। मुझसे मेरी ख़ामोशी का हिसाब माँगा जाता है पर ख़ुद हिसाब देने को तैयार नहीं। जैसे मैं उनकी सलतनत का बँधुआ मज़दूर हूँ और वो मेरी साँसों पे हुक़ूमत करने वाले। 

जाने वो मेरी कौन सी अदा है जिसने मुझे उसकी नज़रों में मश्कूक बना दिया है। शक का नाग हमेशा उसके दिमाग़ में मेरा नाम आते ही फुंफकारने लगता है। बारहा मैंने सफाई दी मगर उसके दिल की क़दूरत मेरे लिए बढ़ती ही गयी। शायद सफाई देना ही सबसे बड़ी ग़लती थी मेरी। जिसे मुझ पे भरोसा नही उसे भला मेरे लफ़्ज़ों पे क्या ऐतबार... मगर मैं अपने दिल का क्या करूँ जो उसके नाम के ताल पे ही थिरका जा रहा है। शायद इसे ही मुहब्बत कहते हैं, जो धुत्कार देता है उसे ही अपनी जागीर नीलम कर देता है ये दिल। 

लगभग पैंतालीस घंटे के बाद, मेरे संदेसे के नौ घंटे बाद ही सही उनका संदेसा आया - "मुझे याद करने के लिए ढेर सारा आभार, आने की ख़बर देते लेकिन सोचा के देखूं लोगों को मेरी याद कब आती है"। ये 'आभार' तब से मेरे दिल पे बोझ की तरह पड़ा हुआ है। जिसके इंतज़ार में मैंने एक-एक पल मर-मर के जिया उसे इतना भी यक़ीन नहीं कि मैंने उसे याद किया होगा। सितमगर! ऐतबार की जिस सीढ़ी को रौंद कर तुम बे-ऐतबारी की मंज़िल पर पहुँचे हो मैं उसी सीढ़ी के पहले पायदान पर उम्र के आख़िरी पड़ाव तक तुम्हारे लौट आने का इंतज़ार करूंगा। 

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© नैय्यर / 23-04-2014

Thursday 17 April 2014

***_ लघु कथा / मौत _***
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"तुम मेरे बग़ैर जी तो लोगे न?" उसने अपना ट्राली बैग घसीट के गाड़ी में रखते हुए पलट के आख़री बार मुझसे पूछा। 

हाँ ! मरता तो मैं तुम पे तुम्हारी संगत में था। इंसान हमेशा अकेले ही जीता आया है, किसी पे मरने के लिए किसी का प्यार चाहिए। ज़िंदा रहने के लिए सांसों का साथ ही बहुत है। मैंने अशोक के पेड़ से टेक लगाये हुए कहा। 

पक्का? उसने हैरत से मुझे देखा। 

इस बार मैंने अपना सर 'हाँ' कि मुद्रा में हिलाया, मुँह से कुछ नहीं कहा।

तो फिर वाद करो...

मेरे पास देने के लिए सिर्फ़ मेरी जान थी जो मैं तुम्हें दे चूका हूँ। ज़िंदा लाश वादा नहीं किया करते।

~

© नैय्यर / 18-04-2014 
***_ لمحہ _***
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وو ایک لمحہ کہ جس میں میں نے
تیرے نام سب کچھ لکھ دیا تھا
وہی ایک لمحہ میری ہم نفس
میری عمر بھر کا سوغات تھا
میری منزلیں، میری چاہتیں
میری حسرتیں، میری جستجو
اس ایک لمحے کے گواہ ہیں
کہ جس پل میں میں نے
اپنی زندگی تیرے نام کی
 انہی لمحوں کی دسترس میں
میری کچھ سانس لپٹی پڑی ہوئی ہے
کسی لمحے تمہیں جو ہو فرصتیں
مجھے آزاد کر دے میری سانس سے

~
نیّر / ١٧-٤-٢٠١٤ © 
 

***_ कहानी / चाशनी _***
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सुबह-सुबह अख़बार वाले ने अख़बार फ़ेंका और उसने बम। रोज़ की यही कहानी थी। जैसे ही बरामदे में अख़बार गिरने की आवज़ आती, किचन से उसके बम के गोले चलने चालू हो जाते। ये सिलसिला पिछले दस सालों से जारी था। मुझे न जाने अख़बार पढ़ने का ऐसा क्या जुनून था कि बिना सारे पेज इत्मीनान से पढ़े ऐसा लगता ही नहीं था कि मैंने अख़बार पढ़ा है। जितनी देर तक मैं ख़बरों को चाटता रहता वो लगातार किचन से मेरा मनपसंद नाश्ता तैयार करते हुए तेज़ आवाज़ में बड़बड़ाये जाती।

कॉलेज के दिनों में उसे मेरे पढ़ने की यही आदत बहुत पसंद थी। हालाँकि, मैं ज़्यादा क़ाबिल और पढ़ने में तेज़ तो नहीं था मगर कोर्स के अलावा भी पढ़ने की आदत न जाने कब और कहाँ से मुझे लग गयी थी। रात को जब तक किसी किताब के दो-चार पन्ने न पढ़ता नींद ही नहीं आती थी। क्लासेज बँक करके जब सारे यार-दोस्त कैंटीन की ख़ुशगप्पियों में मशग़ूल रहते मैं लाइब्रेरी में किसी न किसी किताब को चाटने में लगा रहता। निर्मला, आग का दरिया, माँ, आनंदमठ, गोदान, हाथ हमारे क़लम हुए, मैला आँचल, अंगूठे का निशान, कस्तूरी कुण्डल बसे इत्यादि उन्हीं वक़्तों में मैंने पढ़े थे। कॉलेज के सालाना जलसे में जब मैं बोलता तो बड़े-बड़े साहित्यकारों की बातों को भी उसमें जोड़ता और वो उन बातों से मेरी बेख़बरी में ही प्रभावित होती रही।

हमारे कॉलेज के ज़माने में लड़के-लड़कियों की दोस्ती थोड़ी-बहुत आम हो चुकी थी मगर सिर्फ कॉलेज की चारदीवारी तक ही। कॉलेज के बाहर जैसे सब एक दूसरे के लिए अजनबी से थे। कहीं किसी मोड़ पे टकरा जाने पर भी सिर्फ आँख चौड़ी करते, दूसरे पल आँख झुका अपनी-अपनी राह पकड़ पकड़ लेते। कॉलेज के मैगज़ीन में मेरी एक लम्बी कविता 'प्रेम' छपी। उसे मेरे जैसे विद्रोही व्यक्ति से ऐसे किसी विषय पर लिखने की क़तई आशा नहीं थी। उसने वो कविता पढ़ी, और अगले दिन मुझे एक छोटा सा नोट पकड़ा दिया। मैंने नोट पढ़ा। मुझे उस से ये आशा नहीं थी की वो जज़्बातों को समझने में इतनी माहिर है। मैं तो उसे बस कैंटीन में हो-हल्ला करने वाली बहुत सी लड़कियों में से एक लड़की मानता था। लड़कियों में ये गुण शायद जन्मजात होता है। नोट के बदले मैंने भी उसे एक नोट शुक्रिये के साथ पकड़ा दिया जो नोट तो क़तई नहीं था, अलबत्ता ख़त ज़रूर कहा जा सकता है उसे।

बस, उस दिन के बाद से ख़तों का सिलसिला किताब की लेन-देन के साथ बढ़ने लगा। उसे गोर्की की माँ पसंद नहीं आई। कहने लगी की रुसी क्रांति और एक क्रन्तिकारी माँ-बेटे की कहानी मेरे पल्ले नहीं पड़ती, जाने तुमने कैसे पढ़ा। मैंने कहा की मैंने उस क्रन्तिकारी लड़के की जगह खुद को रख के पढ़ा, तुम भी कोई किरदार ढूँढ लो अपने मुताबिक़ फिर तुम भी समझ पाओगी इस कहानी को। कहने लगी कि मैं जब माँ बनूँगी तो ख़ुद को माँ कि जगह रख के फिर से पढूंगी, और आज गोर्की कि माँ उसकी पसंदीदा किताबों में से एक है। उस दिन मैंने उसे राजिंदर सिंह बेदी कि कहानी 'अपने दुःख मुझे दे दो' पढ़ने को दी।

जाने उस कहानी का उसपे क्या असर हुआ कि अगले दो दिन वो कॉलेज ही नहीं आई। जब तीसरे दिन आई तो लेक्चर हाल के पीछे अमलतास के पुराने पेड़ के पास चलने को कहने लगी। हम दोनों ने वहाँ तक साथ-साथ मगर ख़ामोशी से सफर किया। अमलतास से पीले फूल हरे घास पे बिखरे वजूद का ही हिस्सा लग रहे थे। मैंने पेड़ के तने से ख़ुद को टिकाते हुए कहा - बोलो क्या बात है? मेरे ठीक सामने बैठते हुए उसने चुपचाप एक लम्बा ख़त थमा दिया और ख़ुद फूल चुन खेलने लगी मगर उसकी निगाह मेरे चेहरे पर ही जमी थी, जिसमें उस दो दिन की ग़ैरहाज़री की सारी रूदाद लिखी थी और भी बहुत कुछ था। सबसे बड़ी बात ये कि वो अपनी बाक़ी की ज़िन्दगी मेरे साथ बाँटना चाहती थी। ख़त मैंने बहुत ख़ामोशी से पढ़ा, हाँ कुछ जज़्बात भले ही चेहरे ने उजागर कर दिए हों पर मैंने कुछ नहीं कहा।

मेरी ख़ामोशी उसे शायद बहुत खल रही थी। झुंझलाते हुए उसने कहा कुछ तो बोलो। मैंने कहा - मेरे साथ निबाह कर पाओगी? मुझे किताबों से अज़ीज़ कोई नही, दोस्त-यार, नाते-रिश्तेदार भी नहीं। उसकी हाँ ने मेरा ढेरों ख़ून बढ़ा दिया। मैं कहाँ आम से शकल का मामूली सा लड़का और कहाँ वो ख़ूबसूरती का मुजस्समा। मैं नाते-रिश्तेदार को किसी गिनती में लाता नही था और घरवालों ने मेरे निकम्मेपन की वजह से मुझ से राब्ता ही न रखा था। उसके घर में थोड़ा हो-हल्ला, हाय-तौबा मचा पर लड़की की ज़िद की वजह से सब मान गए।

एक ख़ूबसूरत शाम वो बहुत सजी-धजी मेरी बेरंग ज़िन्दगी में बहार ले के आ गयी। शुरू-शुरू में तो मैं उसे ही पढ़ता। उसके चेहरे पर ऊँगली की पोरों से नज़्म लिखता। होंठों की नमी ऊँगली से बोर उसकी कमर पे अपना नाम लिखता। पर, मैं शायर तो था नहीं, जल्दी इस इस रूमानी दुनिया से मेरा हुक्का-पानी उठा गया, मैं फिर से अपनी किताबों में गुम हो गया। हालाँकि मैं उसे ढेर सारा वक़्त देता मगर उसने तो मेरी किताबों, मेरे पढ़ने-लिखने को अपना सौतन समझ लिया था।

हम रोज़ सुबह नाश्ते की टेबल पर लड़ते पर हर रोज़ हमारा प्यार और गहरा होता जाता। वो दिल की बुरी नहीं है, उसके गोले-बारूद सिर्फ तभी चलते हैं जब मैं पढता हूँ। वरना यूँ तो घर में ख़ामोशी पसरी रहती है। मुझे ख़ामोशी पसंद नहीं, मुझे उसका बोलना बोलना पसंद है और मैं दिल के न चाहने के बावजूद भी किताब ले के बैठ जाता हूँ और उसकी बमबारी शुरू हो जाती है। मैंने उसे ये बात कभी बताना ही नहीं चाहता की जितनी मिठास तुम्हारी बमबारी में है उतना मीठा तो शहद भी नहीं है। बस रोज़ सुबह अख़बार के गिरने से जो आवाज़ होती है उसी के साथ हमारे रिश्ते की चाशनी उसके होंटों से टपकने लगती है। सबकुछ कह जाना ही तो प्यार नहीं होता न? प्यार तो सिर्फ एहसास है जिसे महसूस किया जा सकता है। कह देने से बहुत से लफ्ज़ अपनी तासीर खो देते हैं और मैं अपनी मुहब्बत के ज़ायक़े का कोई भी तासीर खोना नहीं चाहता।

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© नैय्यर /16-04-2014

Sunday 13 April 2014

अक्षांश और देशान्तर से मीलों परे
इक ऐसी गुमनाम दुनिया है
जिसके घूर्णन की दिशा तय होती है
आपके ह्रदय की धुरी के कोण अनुसार
फ़लस्वरूप, यहाँ मौसम बदलते हैं
सुख और दुःख विचरते हैं मेरे मन के आँगन में

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© नैय्यर / 13-04-2014

Saturday 12 April 2014

***_ गुलज़ार (Gulzar) के नाम _***
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पिछली सदी के बचाये हुए मैंने अपने कुछ लम्हे
अपनी यादों से उखाड़ बो दिए थे उनकी आँखों में
महक रहे हैं उनकी गीली आँखों में वो सभी
मिलती रही रिश्तों को नमी उनकी पनीली आँखों से
और खाद मेरे उलझे हुए बे-रब्त ख्यालों से 



कल रात चाँद से तुम्हारे जिस्म पे कुछ लकीरें उकेरीं
तो कुछ लकीरें घट-बढ़ गयीं जैसे मैं और तुम
कतरने के लिए उन्हीं घटाव-बढ़ाव को
मैंने कुछ लम्हे को दाँतो तले दबाया चाँद को
और अबतक चिपका हुआ है 'कुछ' मेरे होंठों से


अब तक उसी मोड़ पे खड़ी है रात चुपचाप अकेली
जहाँ लैंप पोस्ट के नीचे मैंने तुम्हारी आँख चखी थी
हर अमावस पे जवाँ हो जाती है उस ज़ायके की टीस
उस ज़ायक़े की एक परत तुम्हारी थी और एक मेरी
तुमने दोनों ले रक्खा है, एक भिजवा दो जो मेरी हो


याद है तुमको सावन की वो कच्ची सुबह
खोज रहे थे गीली मिटटी पे रात की आहों के निशान
मैं अपने पैरों से बनाता रहा तुम्हारे क़दमों के निशान
और तुम मेरी पीठ पे लदी मेरे काँधे के जुड़वाँ तिल से खेलती रही
आज तक तुम्हारे हिस्से का तिल तम्हारे लम्स के इंतज़ार में है


पिछले बसंत के कुछ फूल अब भी रखे हैं मेज़ पे
जो ख़त में लिपटे सूख गए हैं पर लफ्ज़ अभी ताज़ा हैं
और बहुत कुछ ताज़ा है इस सीने में जहाँ तुम हो
जाने कौन सा सावन है जो सुलग रहा है मेरे अंदर
शायद तुम्हारी आँखें बरस रही हैं मेरे अंदर


~
© नैय्यर / 12-04-2014


(गुलज़ार साहब को 'दादासाहब फाल्के पुरस्कार'- 2013 के लिए चुने जाने पर मेरी तरफ से मेरी अधकचरी रचना उनके नाम, जो कहीं से रचना कहलाने लायक नहीं है। शायद उनके नाम से जुड़ने पर मेरे लफ़्ज़ों की तक़दीर बदल जाए)

Friday 11 April 2014

***_ गणित रिश्तों का _***
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समय के वृत चक्र में
एक दूसरे से जुड़े हैं हम
अलग-अलग केंद्र बिंदु से

तुम ने खींच के एक लकीर
कहा था त्रिज्या जिसे कभी 
व्यास बन गया है अब वो समय के साथ

उलझे हुए उसी व्यास को आधार मान 
नाप रहा रहा हूँ अपने रिश्ते की परिधि
जिसके क्षत्रफल में मैं कहीं हूँ ही नहीं

त्रिशंकु सा है शायद अपना रिश्ता
जिसकी एक भुजा तो मैं हूँ और दूसरी तुम
और 'अना' है जिसकी तीसरी भुजा

उसी 'अना' नें दोनों भुजाओं को
जोड़ रखा है एक ऐसे कोण से
जो हमें विभाजित नहीं होने देता एक सा

रिश्ते बराबरी के हक़दार होते हैं
और गणित समीकरण का मोहताज
और मैं केंद्र बन गया हूँ दोनों का

तुम मेरे कोण को समझती ही नही, और 
न ही आ पाती हो समीकरण के खेल में
बस ! घूम रहे हैं अपनी-अपनी धुरी पर हम दोनों

~
© नैय्यर / 11-04-2014

Wednesday 9 April 2014

जाने कब
हो गए 'मैं' और 'तुम'
जो कभी जीते थे
'हम' बन कर

चलो फिर से 'हम' हो जाएँ
अपने-अपने 'मैं' के चककर में
हम अपनी-अपनी मौत मरे हैं

~
© नैय्यर / 09-04-2014

Tuesday 8 April 2014


***_ आताताई _***
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अभी तक गूंज रही है कानों में आदमखोर की हुँकार
अभी तक रिस रही हैं आँखों से लहू-लहू ख्वाब की बूंदें
अभी तक लम्स ताज़ा है  बदन पे उगे तेरे हर सितम का
अभी तक जमा नही है संघर्ष मेरा आँख से टपके लहू की तरह
अभी तक जान बाक़ी है मेरे इरादों की रगों में

अभी संभालनी है मुझको वो सभी किरचियाँ
के जिसमें रंग भरे थे मेरे ख्वाबों, मेरे उमंगों के  
अभी जगाना है अलसाये हुए सूखे खेतों को जिसने
वादा किया था भूख से ज़यादा अनाज उगाने का
और मेड़ पर बैठ  संग मल्हार गाने का

अभी तक सोच के परदे पे कुछ निशाँ बाक़ी हैं
वो निशाँ के जिसके दायरे में हुई आरज़ू जवाँ
उन्ही आरज़ुओं में बेनाम सी कुछ इल्तेजाएं थी
जो ज़बान ने रात के अँधेरे में चुपके से होठों पे रखी थी
वो अब भी रौशन है मेरे आँख में मगर लहू-लहू सा है 

मैंने कब चाहा था मेरे बैल रौंदें कोलतार की काली लम्बी सड़कों को
मैंने कब चाहा था कि बल्ब की रौशनी खेले मेरे आँखों से कबड्डी
मैंने कब चाहा की तरक़्क़ी झूले मेरे बरगद की शाखों से
मैंने कब चाहा के पुरवाई में घुले कारखानों के उड़ते धुएँ
मैंने कब चाहा के शहर उठ के आ बसे मेरे गाँव के पीछे

मैंने तो बस इतना चाहा ख़ुदा, क्या बुरा चाहा, कि
स्कूल सिमट आये मेरे बच्चों की बाँहों में
खिले लफ़्ज़ों के फूल उनके मासूम होठों पर
उड़े उनके ख्वाबों की पतंग मेरे नीम से ऊँची
हों उनके हाथ में हल और क़लम ज़मीन-आसमान की तरह

शायद ये सस्ते ख्वाब वज़नी थे उसकी अना के आगे
के जिसने बहनों-माओं की इज़ज़तें नीलाम कर डालीं
के जिसने रौंद डाला मासूमों और अजन्मे बच्चों को
के जिसने पल में सारी बस्तियाँ जला के राख कर डालीं
मैंने वो सभी चीखें, इज़ज़तें और राखें बिखेर दी हैं अपने खेतों में 

हर पीढ़ी अपनी रगों जिए में  उस दर्द को टीस की तरह
जिस दर्द को उनके पूर्वजों नें ढोया है रूह पे सलीब की तरह
यक़ीं है, उसी सलीब पे होगा ये तहरीर एक दिन
के जिसने ख़ून रंगे पाँव से इस धरती को रौंदा था
उसी के सीने पे बन के अज़ाब ये सलीब रक्खी है

~
© नैय्यर / 08-04-2014

Monday 7 April 2014

***_ सिगरेट _***
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उसने अपने दाहिने हाथ कि
चारों उँगलियों को
एक सिगरेट फंसा, किया
दो हिस्सों में तक़सीम

उँगलियों में फंसा, ताज़ा सुलगा सिगरेट
दूसरे हाथ में दबी माचिस की डिबिया
और होंठों के दोनों क़तरों के बीच से
धुवाँ का उठता ख़ूबसूरत गुच्छा

ये सारा मंज़र देख रहा था ख़ामोशी से
छत के दूसरे कोने को फलांग कर उग आया
एक पुराना सा अधनंगा पेड़
जिसका सबकुछ लूट लिया था पतझड़ ने

मैंने भी बस कुछ पल देखा उसको
चश्मे ने आँखों को ले रखा था ओट में
होंटों से लिपटी पड़ी थी गीली मुस्कान
और शाम ने जमा लिए थे डेरे गलों पे

मेरी नज़र ने जाना उसको जितना
उतने में कोई दुःख का साया नज़र न आया
जाने फिर भी क्या कुछ भरा था उसके अंदर
जिसे वो क़िस्तों में फूंक देना चाहती थी

मैं कब से एक सिगरेट लिए हाथों में
खेल रहा हूँ ख्यालों से और सोच रहा हूँ
जाने उसके अंदर ऐसा क्या था जो फूंक दिया
जाने उसने कैसे सारा ज़हर उतरा सीने में

~

© नैय्यर / 06-04-2014
***_ उम्र-ए-रवाँ _***
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जाने क्यूँ ये उम्र-ए-रवाँ
मेरे ख्वाबों के दरीचे से निकल के
मेरी यादें, मेरे गुज़रे हुए लम्हात को
इक मानूस सी ख़ुश्बू में बसा कर
हर रात मेरे सिरहाने सजा जाती है 

और उसी ख़ुश्बू की बदौलत
मेरी यादें दबे पाँव निकल पड़ती हैं
पेचीदा सी उन गलियों में चहलक़दमी को
जिनमें बिखरे पड़े हैं मेरे अनगिनत लम्हात  
दरअसल, ये लम्हात नहीं मेरे ज़खीरे हैं 

हाँ ! मैंने वक़्त की गुल्लक में छुपाये हैं कुछ लम्हे  
ये वो लम्हे हैं जिसे मैंने जिया है ख़र्चा नही
और जिनका मेरी उम्र-ए-रवाँ में कोई चर्चा नहीं
हो भला चर्चा क्यूँकर वक़्त कि रेज़गारी का 
ये ज़िन्दगी है किसी इम्तहान का पर्चा नही  

उन्ही लम्हों में हैं मेरा बचपन, मेरी हंसी, मेरी शरारत, मेरी तितली
मेरे आँसू, मेरे खिलौने और खिड़की के नीचे से गुज़रती वो पतली गली
वो गली जो जा के मिलती रही मुख्तलिफ़ शहर के बेरंग सी सड़कों से
और ये दुनिया मुझे शहर-दर-शहर यूँ ही पटकती रही
और ये उम्र-ए-रवाँ चुपचाप मेरे गुल्लक में सरकती रही 

उसी गुल्लक की सुनसान सी अँधेरी गली से आज
इक लम्हा निकल के यूँ उलझा ज़ुल्फ़ों के पेचो ख़म में
जैसे मेरी ज़िन्दगी गिरवी हो किसी महाजन के यहाँ
और जिसका सूद रोज़-ब-रोज़ मेरे क़द से बढ़ा जाता है
और रेत की तरह उम्र मेरी मुठ्ठी से गिरा जाता है 

~
© नैय्यर / 02-04-2014