Wednesday 21 May 2014

"सिर्फ़ साँस चलने ही को तो जिंदा रहना नहीं कहते न? जिंदा लाशों के फेफड़े भी मरते दम तक वफ़ादारी निभाते हैं. दर-हक़ीक़त इंसान उसी पल मर जाता है जिस पल बे-ऐतबारी सलीब की मानिंद उसके ज़मीर पे ठोक दी जाती है और अपनी बे-गुनाही का सबूत देते देते कई बार मर मर के मरता है. रिश्तों में (से) ऐतबार का ख़ात्मा सिर्फ़ रिश्तों की मौत के वजह नहीं होते बल्कि रिश्तों के दोनों डोर से बंधे इंसानों की भी मौत हो जाती है. ये अलग बात है कि किसके हिस्से में मौत के कितने टुकड़े आते हैं. जिंदा इंसान जब अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाता तो जिंदा लाशें भला इस मसले का क्या हल देंगी? शायद मौत ही बेगुनाही साबित कर दे. पर क्या बे-ऐतबारी और इलज़ाम देने वालों को मौत कि सच्चाई पे यकीन होगा? जिसे इन्सान की सच्चाई और उसके लफ़्ज़ों की सच्चाई पे ऐतबार नहीं उसे मौत पे भला क्यूँ और कैसे ऐतबार हो जायेगा?" - Naiyar

Sunday 11 May 2014



***_ माँ _***
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ये दुनिया
दुत्कारती है मुझे
मेरे नाम की वजह से
मेरे चेहरे की बनावट में ढूंढती है
ग़रीबी का पता कोई

मेरे कुरूप चेहरे
बहार निकले दाँत
और हकला के बोलने की बीमारी
ये सभी पहचान हैं मेरी
बहरी दुनिया वालों के लिए
उनके लिए जो अपनी
ज़रुरत और अपने फायदे के लिए ही
मजबूरन मिलते हैं मुझ से

फिर न जाने किस वजह से
मेरे चेहरे पे मुनाफा तौलते हैं
अपने नफ़रत के कारोबार का
उस चेहरे पे जिसपे कभी
बिला-ज़रुरत वो देखना भी गवारा न करें

ऐसी मतलबी और कुरूप दुनिया से
हर लम्हा मेरी 'माँ' की दुआएँ बचाती हैं मुझे
वो माँ जिसने मेरी सूरत देखे बिना
सींचा है मुझे अपने लहू से
और मेरी हर ऐब के उसने
छुपाया है अपने आँचल के तले

ऐसी माँ की क़दम-बोसी के लिए
सैकड़ों बार भेजता हूँ लानत मैं
ऐसी खुदगर्ज़ और नफरत से भरी
इंसानों की इस बदरंग दुनिया पर

~
© नैय्यर / 11-05-2014

Wednesday 7 May 2014

"नस्ल-दर-नस्ल मुहब्बत किताबों में महफूज़ होता आया है। कामयाब मुहब्बत इतिहास के पन्नों में ज़िंदा हैं और नाकाम मुहब्बत अफसानों में।" - Naiyar Imam Siddiqui

(नोट : कुछ मुहब्बत जो एकतरफ़ा हैं वो मेरी आँखों में ज़िंदा हैं )
"न तो मुझे जीने की आरज़ू है और ना ही मरने की तमन्ना, बस इतनी हसरत है के तुम बात-बे-बात मुझसे रूठती रहो और मैं तुम्हें मनाने के लिए खुदा से सांस उधार मांगता रहूँ. कम से काम खुदा का एहसान तो तुम्हारे आंसुओं के बोझ से काम ही होगा. खुदा के करोड़ों एहसानात के बोझ मैंने बारहा उठाये हैं, पर न जाने क्यों मैं तुम्हारे आंसुओं का बोझ उठाने से क़ासिर हूँ...शायद मुझे तुमसे मुहब्बत हो गयी है,... और खुदा से? खुदा से हम मुहब्बत करते ही कब हैं? उसे तो बस ज़रूरत के वक़्त ही याद करते हैं...जैसे मैं मुहब्बत तुमसे करता हूँ पर सांस उधार मांगते वक़्त खुदा याद आ गया. खुदा खैर करे" - Naiyar