Thursday 16 October 2014

तराना-ए-अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी / ترانہء علی گڑھ مسلم یونیورسٹی

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ 
یہ میرا چمن ہے میرا چمن، میں اپنے چمن کا بلبل ہوں

सरशार-ए-निगाह-ए-नर्गिस हूँ, पाबस्ता-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूँ
سرشارِ نگاہِ نرگس ہوں، پابستہءِ گیسوءِ سمبل ہوں

हर आन यहाँ सोहबा-ए-कुहन, इक साग़र-ए-नव में ढलती है 
ہر آن یہاں صہپاےءِ کہن، اک ساغر نو میں ڈھلتی ہے

कलियों से हुस्न टपकता है, फूलों से जवानी उबलती है 
کلیوں سے حسن ٹپکتا ہے، پھولوں سے جوانی ابلتي ہے

जो ताक़-ए-हरम में रौशन है वो शमा यहाँ भी जलती है 
جو طاقِ حرم میں روشن ہے وہ شمع یہاں بھی جلتی ہے

इस दश्त के गोशे-गोशे से इक जुए हयात उबलती है 
اس دشت کے گوشے - گوشے سے اک جوئے حیات ابلتي ہے

इस्लाम के इस बुत खाने में असनाम भी हैं और आज़र भी 
اسلام کے اس بت خانے میں اصنام بھی ہیں اور آذر بھی

तहज़ीब के इस मयख़ाने में शमशीर भी है और साग़र भी 
تہذیب کے اس ميخانے میں شمشير بھی ہے اور ساغر بھی

याँ हुस्न की बर्क़ चमकती है, याँ नूर की बारिश होती है 
ياں حسن کی برق چمکتی ہے، ياں نور کی بارش ہوتی ہے

हर आह यहाँ इक नग़मा है हर अश्क यहाँ इक मोती है 
ہر آہ یہاں اک نغمہ ہے ہر اشک یہاں اک موتی ہے

हर शाम है शाम-ए-मिस्र यहाँ, हर शब है शब-ए-शीराज़ यहाँ 
ہر شام ہے شامِ مصر یہاں، ہر شب ہے شبِ شيراز یہاں

है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ 
ہے سارے جہاں کا سوز یہاں اور سارے جہاں کا ساز یہاں

ये दश्त-ए-जुनूँ दीवानों का, ये बज़्म-ए-वफ़ा परवानों की 
یہ دشتِ جنوں دیوانوں کا، یہ بزمِ وفا پروانوں کی

ये शहर-ए-तरब रूमानों का, ये ख़ुल्द-ए-बरीं अरमानों की 
یہ شہرِ طرب رومانوں کا، یہ خلدِ بریيں ارمانوں کی

फितरत ने सिखाई है हमको, उफ्ताद यहाँ परवाज़ यहाँ
فطرت نے سکھائی ہے ہم کو، افتاد یہاں پرواز یہاں

गाये हैं वफा के गीत यहाँ, छेड़ा है जुनूँ का साज़ यहाँ 
گائے ہیں وفا کے گیت یہاں، چھیڑا ہے جنوں کا ساز یہاں

इस फर्श से हमने उड़-उड़ कर अफलाक के तारे तोड़े हैं 
اس فرش سے ہم نے اڑ - اڑ کر افلاک کے تارے توڑے ہیں

नाहिद से की है सरगोशी, परवीन से रिश्ते जोड़े हैं 
ناہید سے کی ہے سرگوشي، پروین سے رشتے جوڑے ہیں

इस बज़्म में तेगें खींची हैं, इस बज़्म में साग़र तोड़े हैं 
اس بزم میں تیغیں کھینچی ہیں اس بزم میں ساغر توڑے ہیں

इस बज़्म में आँख बिछाई है इज बज़्म में दिल तक जोड़े हैं 
اس بزم میں آنکھ بچھائی ہے اس بزم میں دل تک جوڑے ہیں

इस बज़्म में नेज़े फेंके हैं, इस बज़्म में खंजर चूमे हैं 
اس بزم میں نیزے پھینکے ہیں، اس بزم میں خنجر چومے ہیں

इस बज़्म में गिर कर तडपे हैं, इस बज़्म में पी कर झूमे हैं 
اس بزم میں گر کر تڑپے ہیں، اس بزم میں پی کر جھومے ہیں

आ-आ के हजारों बार यहाँ ख़ुद आग भी हमने लगाई है 
آ - آ کے ہزاروں بار یہاں خود آگ بھی ہم نے لگائی ہے

फिर सारे जहाँ ने देखा है ये आग हमने बुझाई है 
پھر سارے جہاں نے دیکھا ہے یہ آگ ہم نے بجھائی ہے

याँ हमने कमंदें डाली हैं, याँ हमने सलाखुं मारे हैं 
ياں ہم نے كمندیں ڈالی ہیں، ياں ہم نے سلاخوں مارے ہیں

याँ हमने क़बायें नोची हैं, याँ हमने ताज उतारे हैं 
ياں ہم نے قبایںء نوچي ہیں، ياں ہم نے تاج اتارے ہیں

हर आह है ख़ुद तासीर यहाँ, हर ख़्वाब है ख़ुद ताबीर यहाँ 
ہر آہ ہے خود تاثیر یہاں، ہر خواب ہے خود تعبیر یہاں

तदबीर के पाय-संगीं पर झुक जाती हैं तक़दीर यहाँ 
تدبیر کے پائے سنگین پر جھک جاتی ہیں تقدیر یہاں

ज़र्रात का बोसा लेने को सौ बार झुका आकाश यहाँ 
ذرّات کا بوسہ لینے کو سو بار جھکا آکاش یہاں 

खुद आँख से हमने देखी है बातिल की शिकश्त-ए-फाश यहाँ 
خود آنکھ سے ہم نے دیکھی ہے باطل کی شكشتِ فاش یہاں

इस गुलकदा-ए-पारीना में फिर आग भड़कने वाली है 
اس گلكدہء پارينہ میں پھر آگ بھڑکنے والی ہے

फिर अब्र गरजने वाले हैं, फिर बर्क़ कड़कने वाली है 
پھر ابر گرجنے والے ہیں، پھر برق کڑکنے والی ہے

जो अब्र यहाँ से उठेगा वो सारे जहाँ पर बरसेगा 
جو ابر یہاں سے اٹھے گا، وہ سارے جہاں پر برسے گا

हर जुए रवाँ पर बरसेगा, हर कोहे गिराँ पर बरसेगा 
ہر جوئے رواں پر برسے گا، ہر کوہ گراں پر برسے گا

हर सर-व-समन पर बरसेगा, हर दश्त-व-दमन पर बरसेगा 
ہر سر وسمن پر برسے گا، ہر دشت و دمن پر برسے گا

ख़ुद अपने चमन पर बरसेगा, गैरों के चमन पर बरसेगा 
خود اپنے چمن پر برسے گا، غیروں کے چمن پر برسے گا

हर शहर-ए-तरब पर गरजेगा, हर क़स्र-ए-तरब पर कड़केगा 
ہر شہرِ طرب پر گرجے گا، ہر قصرِ طرب پر كڑكےگا

ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा 
یہ ابر ہمیشہ برسا ہے، یہ ابر ہمیشہ برسے

~
मजाज़ / مجاز 
1936
~
© Aligarh Muslim University (http://www.amu.ac.in/)
~
When Dr. Zakir Husaain was the Vice Chancellor of AMU he removed some verses from the original Poem of Majaz and thus the ‘Tarana-E-Aligarh’ came in existence. Enjoy the melody of the AMU’s Tarana http://www.youtube.com/watch?v=VIos_YTJ3po
~
Research and Compilation by - https://www.facebook.com/naiyarimam.siddiqui

Saturday 4 October 2014

इक मुलाक़ात ‘रावण’ से

सुबह ही सुबह किसी ने मुझे झंझोड़ के उठाया – अमाँ यार उठो, नमाज़ नहीं पढ़नी क्या तुम्हें? मैं जल्दी से उठा तो देखा रावण भाई मेरे पैताने बैठे हुए थे. मैं घबरा के पूछा, आज इधर कैसे और वो भी इतनी सुबह? पहले तुम नमाज़ पढ़ आओ, फिर बात करते हैं. आँख मसलते हुए मैंने घड़ी देखी, सुबह के 04: 30 हो रहे थे. थोड़ी देर में अज़ान होने वाली थी. मैंने बिस्तर के उठ के मुहँ धोया, वज़ू किया और बाद नमाज़ क़ुरान की तिलावत की और वापस आ के पूछा, ‘हाँ ! अब कहों, आज कैसे याद किया?’

‘‘क्या क्या सितम उसने किये जान पे मेरी, क्या बात है वो फिर भी सितमगर नहीं लगता’’ – दीवार से टेक लगाए मेरे सवाल के जवाब में उसने शे’र सुनाया. मैंने कहा क्या बात है आज बहुत शायराना मूड में हो. इधर मैं सुलगा पड़ा हूँ और तुम्हें मस्ती सूझी पड़ी है, उसने गुस्से से अपना नाक फुलाया. अच्छा चलो अब मस्ती नहीं, सीरियसली  बताओ क्या बात है जो सुलगे पड़े हो?

यार, ये बताओ कि मैंने ऐसा क्या किया है जो हर साल जलाया जाता हूँ और राम ने ऐसा क्या किया है जो सदियों से पूजा होती आ रही है उसकी? देख भाई, ये ‘इंटर रिलिजन’ सवाल मत पूछ, बहुत लफड़ा होता है इधर मेरे देश में दुसरे के धर्म के बारे में बोलने पर. देख, तू कन्नी मत काट, सीधे-सीधे जवाब बता. भाई, पहले तू अपना पक्ष, अपनी दलील रख तभी मैं निष्पक्ष फ़ैसला कर पाउँगा.

मतलब तू चाहता है आज मैं फिर से एक बार इतिहास, भूगोल उलट-पुलट करूं. मेरे दस सिर हैं फिर भी मेरी याद्दाश्त थोड़ी कमज़ोर है. जितना याद है उसके मुताबिक़ तुम्हारा आज के दक्षिण भारत का कुछ भाग भी तब मेरे राज्य के अधीन था. राम अपनी पत्नी एवं भाई लक्ष्मण के साथ वनवास काट रहे थे और उस वक़्त मेरे राज्य के जंगल में विचरण कर रहे थे. ‘फेयर एंड लवली’ लगाने वाले देश के दो जवान युवक देख कर वो उनपर मोहित हो गयी, हालाँकि उनका रंग हमारे देश के जवानों से थोड़ा सा ही हल्का रहा होगा, पर वो बात तो सुना होगा न कि दिल लगा दीवार से तो.... जिस देश में कृष्ण और राधा नें ‘अपने अपने’ ‘’साथी’’ को छोड़ ‘लिमिटलेस’ प्यार किया उसी देश के युवकों नें मेरी बहन के प्रणय निवेदन का मज़ाक़ बनाया और लगे दोल्हा-पाती खेलने. एक कहता दुसरे से कर लो, दूसरा कहता पहले से कर लो. कृष्ण ने तो कई हज़ार पटरानियाँ रखी थी, अगर राम और लक्ष्मण एक पत्नी ‘ज़्यादा’ रख लेते तो मेरे जंगल में कुटिया रखने के लिए ज़मीन थोड़े न कम पड़ जाती? मेरी बहन राजकुमारी थी फिर भी ‘’लीगली’’ ‘दूसरी पत्नी’ बनने को तैयार थी लेकिन उन दोनों को दोल्हा-पाती खेलते खेलते जाने कब और क्यूँ गुस्सा आया कि एक ने मेरी बहन के नाक-काट लिए. मेरी बहन रोते क़िले में आई और सारा माजरा कह सुनाया. तुम बताओ सब जान के कौन सा भाई होगा जिसका खून नहीं खोलेगा? माना कि तब चुनाव नहीं होते थे लेकिन रजा को भी अपना दबदबा बना के रखना पड़ता है, वरना मेरा भाई कब तख़्ता पलट देता, क्या भरोसा? तुम्हें तो पता ही है कि गुस्से में मेरा ख़ुद पे कंट्रोल नहीं रहता, दस दिमाग़ की बात कैसे समझता. न आगा देखा ना पीछा. राम और लक्ष्मण को छकाने के बाद मैंने सीता का हरण कर लिया. उन्हें अशोक वाटिका में नेचुरल ऐ.सी में रखा, कभी हाथ नहीं लगाया. राम वनवास समाप्ति के बाद राजगद्दी पर बैठते, मैं भी रजा था, हमारी भाषा अलग थी, उन्हें मामला बहुभाषीय के ज़रिये सुलझाना चाहिए था. मैंने सीता का हरण सिर्फ़ इसलिए किया था कि पता चले कि स्त्री कि इज़्ज़त कितनी नाज़ुक होती है, ये खेलने कि नहीं सम्मान कि हक़दार होती है लेकिन वो बातचीत करने नहीं आए. हनुमान के ज़रिये मेरे राज्य में ‘घुसपैठ’ करा दिया. मेरे जंगल से बिना मेरी इजाज़त पेड़ काटे, पत्थर उखाड़े, मिटटी काटी और पुल बनाया. जिसका पर्यवारनणीय ख़ामियाज़ा हमने पिछले दसक में सुनामी के रूप में भुगता. पूल बना कर हनुमान मेरे महल तक आये लेकिन संवाद करने नहीं, शाजिश करने. सीता को महल से भगाने के लिए उसने शाजिश रचा और जब हमारे सैनिकों ने रोकना चाहा तो मेरी सोने की लंका को कोयले की लंका में बदल दिया. तुम्हारे सोने जैसी चिड़िया देश को अंग्रेज़ों ने लूटा तो आज तक तुम लोग उन्हें गाली देते हो, मेरी लंका हनुमान ने फूंक दी फिर भी हमारे वंशजों ने कभी किसी बानर को गाली नहीं दिया ना ही किसी भारतीय को क्यूँकी हनुमान का नेतृतव तो भारतवंशी राम ही कर रहे थे. उल्टा हमने अपने जंगलों में बानरों को रहने का ‘परमिट’ जारी किया. राम ने मेरे साथ विश्वासघात किया, मेरे भाई-भतीजे, और बेटे को वारगालाया, ‘सत्ता’ में ‘गठबंधन’ का लालच दे कर मेरे ख़िलाफ़ युद्ध के लिए उकसाया और मेरा ‘वध’ कर दिया. युद्ध में वो सब भी मारे गए लेकिन छल-कपट से जीता गया युद्ध राम को ‘भगवान’ बना गया और मुझे ‘दानव’. (हालाँकि भारत में भगवान का कॉपीराईट ‘ब्राह्मण खानदान’ के पास है फिर क्षत्रिय खानदान में भगवान कैसे पैदा हो गए?) युद्ध उपरान्त भारत लौटते समय वो मेरा पुष्पक विमान तक उठा ले गए. जिस सीता के लिए मेरी सवर्ण नगरी जला दी, मेरा खानदान बर्बाद कर दिया उसी सीता को गर्भ की हालत में त्याग का दिया राम ने और ‘मर्यादा पुरषोत्तम’ का ‘मैडल’ जीत लिया. जो हनुमान अपना सीना चीर के ये दिखा सकता है कि मेरे सीने में राम, सीता और लक्ष्मण हैं वो सीता के अग्नि परीक्षा के वक़्त चुप क्यूँ रहा? सीता कि शुद्धता की गवाही क्यूँ नहीं दी उसने? जिसने सीता के धोका किया उसी का मंदिर सबसे ज़्यादा है तुम्हारे देश में, जिसने सीता कि अग्नि परीक्षा ली उसके मंदिर के नाम पे ‘सत्ता का ख़ूनी खेल’ खेला जाता है लेकिन जिसने सारा सितम हँस के सहा उसके कितने मंदिर है तुम्हारे यहाँ? मैंने सारी बेईमानियाँ बर्दाश्त इसलिए की के मेरे दहन के बहाने ही सही सीता को याद तो किया जाएगा, लेकिन सीता ‘बैकफूट’ में चली गयी और राम ‘फ्रंट फूट’ में आ गए. ये सारा सितम भी मैंने गवारा किया लेकिन कल शाम सुभाष मैदान में मैं अपने दहन से पहले ही सुलग चूका था. मैं लाख बुरा सही, लेकिन मैंने मजलूमों का खून नहीं बहाया, गर्भवती महिलाओं का गर्भ चीर के उनके बच्चों को तलवार पे ले के नहीं घूमा, मैंने बलात्कार नहीं किया, मैंने बच्चों को नहीं मारा, इंसानों को ज़िन्दा नहीं जलाया, किसी कि जासूसी नहीं की, अपनी पत्नी को पत्नी सुख से वंचित नहीं किया, उसे परित्यक्त नहीं किया लेकिन ये सभी कर्म करने वाला और कराने वाले इंसान ने जब मेरे दहन के लिए धनुष-बाण उठाया तो ऐसा लगा कि आज रावण ज़िन्दा हो गया, राम मर गया.

मैंने अपनी सदियों लम्बी कहानी ‘कॉम्प्रेस’ कर के तुम्हें सुना दी, अब सुनाओ अपना निष्पक्ष फ़ैसला. भाई रावण मेरे हिसाब से तुम ही सही हो, लेकिन मेरे फ़ैसले से मेरे देश में बवाल हो जाएगा, लोग मुझे ही ‘आतंकवादी’ घोषित कर देंगे इसलिए मैं अपना फ़ैसला सुरक्षित रखता हूँ और ये वादा करता हूँ कि आज से किसी को ‘रावण दहन’ की बधाई नहीं दूँगा. तुम जबतक जियोगे राम को जीना पड़ेगा, यही तुम्हारी जीत है.


~ © नैय्यर / 04/10/2014