Friday 14 August 2015

सरहद

लाहौर के डिफ़ेन्स एरिया में 250 एकड़ में फैले ‘ख़ान विला’ ने अभी ढंग से सुबह का इस्तक़बाल भी नहीं किया था कि क़यामत ने दस्तक दे दी थी. वो फज्र की नमाज़ के बाद मौलाना आज़ाद की लिखी क़ुरान की तफ़सीर लेने लाइब्रेरी गयी. चूँकि क़ुरान की तफ़सीर पढ़ना उसका रोज़ का मामूल था इसलिए उसने बिना बत्ती जलाए ही लाइब्रेरी के पश्चिमी सिरे पर रखी किताबें टटोलनी शुरू कर दी. लाइब्रेरी का पश्चिमी सिरा अरबी के किताबों और लिटरेचरों से अटा पड़ा था. दाएँ से चौथे नम्बर पर उसकी मतलूबा किताब रखी रहती थी. उसने जैसे ही किताब रैक से खींची, कोई सामान गिरा. लगभग दो हाथ के फ़ासले पर बिजली का स्विच था, उसने एक क़दम दाएँ बढ़ते हुए बिजली का स्विच ऑन किया तो देखा कि लाल रंग के कपड़े से बंधी एक पोटली गिरी हुई थी और राख सफ़ेद संगमरमर के फ़र्श पर बिखर पड़ी थी. वो किताब हाथ में थामे हैरान खड़ी राख, पोटली और लाल कपड़े के बीच की गुत्थी को सुलझाने की नाकाम कोशिश कर ही रही थी कि बग़ल उसके दादा के आवाज़ उसके कानों पे पड़ी.
‘क्या गिराया महीन?’
‘कुछ नहीं दादू ! पता नहीं, कैसी पोटली गिरी है, जिससे फ़र्श पर राख बिखर गयी है’
‘क्...क्क...क्या? पोटली...पर वो गिरी कैसे? मैंने तो सबसे ऊपर वाले रैक में रखा था.’
‘मुझे नहीं पता दादू, पर...ये पोटली है कैसी? और इसमें राख क्यूँ रखी है आपने?
‘ठहरो मैं आता हूँ वहाँ’
‘आप रहने दें दादू, मैं अभी साफ़ कर देती हूँ’
‘नहीं ! उसे वैसे ही रहने दो...मैं आ रहा हूँ, वो मेरा बोझ है और मुझे ख़ुद ही उठाना है अपना बोझ’
‘रिटायर्ड प्रोफ़ेसर एहसान ख़ान महोगनी की स्टिक के सहारे चलते हुए लाइब्रेरी आए और चुटकी भर राख सुरमे की तरह आँखों में लगाया ही था कि रो पड़े.
‘दादू, आप रोने क्यूँ लगे? और ये राख आपने आँखों में क्यूँ लगा ली? लाइए मैं अपने दुपट्टे से इसे साफ़...’
‘ये राख नहीं है बेटा. ये मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी कमाई है, ये पिछले 68 सालों की अमानत है. ये सरहद पार आने का इनाम है बेटा’
‘68 सालों की अमानत? सरहद पार आने का इनाम? मैं कुछ समझी नहीं दादू?’
‘पहले अपने पापा को बुलाओ, मुझे भी उस से अपनी अमानत से ख़यानत का हिसाब लेना है’
‘जी अब्बा ! आपने मुझे बुलाया?’
‘महीन के साथ मेजर ज़ीशान ख़ान ने लाइब्रेरी में क़दम रखते ही बहुत इज़्ज़त से अपने वालिद एहसान ख़ान से पूछा’
‘गिरी हुई पोटली की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने पूछा, - इसे तुमने हटाया था?’
‘लेकिन ये गिरी कैसे?’
‘पहले मेरे सवाल का जवाब दो’
‘जी, मैंने हटाया था’
‘क्यूँ?’
‘क्यूँ का जवाब तो आपको भी पता है अब्बा, आज 14 अगस्त है और आज ही के दिन...’
‘हाँ, मुझे पता है आज ही के दिन मैंने....’
‘अब जाओ तुम दोनों, जो बोझ मैंने आज से 68 साल पहले मैंने उतारा था उसे जब तक मैं ज़िन्दा हूँ मुझे ख़ुद ही उठाना होगा’, आँसुओं के सैलाब से भरी आँखों से साथ उन्होंने कहा.
‘ये सब क्या है पापा? दादू ने उस राख को अपनी आँखों में क्यूँ लगाया? वो उस राख के लिए रो क्यूँ रहे हैं पापा? ख़ामोशी से कॉरिडोर से गुज़रते ज़ीशान ख़ान को उसने झंझोड़ते हुए फिर पूछा, - कुछ तो बोलिए पापा, आप इतने चुप से क्यूँ हो गए पापा?
‘तुम ये सारे सवाल अपने दादू से पूछना क्यूँकी सवाल उन्हीं से जुड़े हुए हैं’
‘अगर सारे सवाल दादू से ही जुड़े हुए हैं तो आपने उस पोटली को क्यूँ हटाया? वो कौन सा सवाल है जो पोटली के हटाने और आपकी ख़ामोशी के बीच रुकावट है, बोलिए न पापा?
‘मुझे देर हो रही है, तुम मेरी वर्दी निकाल दो, मुझे फ्लैग होस्टिंग के लिए निकलना है, कहीं देर न हो जाए.’ और हाँ, अपने दादू को नाश्ता करा देना, उन्हें ज़्यादा तंग न करना.
***
मेजर ज़ीशान ख़ान के आर्मी यूनिफ़ार्म में तैयार हो कर फ्लैग होस्टिंग के लिए निकलने के बाद माहीन दादू के पसंदीदा नाश्ते चाय और नमकीन पराठे लिए उनके कमरे में पहुँची मगर वो वहाँ नहीं थे. नाश्ते की ट्रे मेज़ पर रख कर वो लॉन में उन्हें ढूंढने चली आई, मगर सनोबर के दरख़्त के पास रहने वाली उनकी सफ़ेद कुर्सी ख़ाली पड़ी थी. कहाँ गए दादू? ख़ुद से ही सवाल पूछने और उसे हल करने की कोशिश में उसे ध्यान आया कि कहीं वो पास के आर्मी स्कूल में फ्लैग होस्टिंग देखने तो नहीं चले गए? लेकिन तभी उसे ख़याल आया कि दादू तो बताये कहीं नहीं जाते, फिर आज कहाँ चले गए? और इस बार वो मन के जवाब पर तेज़ी से लाइब्रेरी की तरफ़ भागी थी. देखा तो दादू वहीँ लाइब्रेरी की फ़र्श पर बैठे ज़ार-व-क़तार रो रहे थे और अपने कुर्ते के दामन से संगमरमर के बेहिस पड़े सीने पर से बिखरी हुई राख समेट रहे थे.
‘आप यहाँ हैं, मैं आपको सारे घर में खोजती फिर रही हूँ, लॉन तक में देख आई आपको. आज आपने नाश्ता नहीं करना?’
‘जिस गले में आँसुओं के गोले अटके हों न तो उस गले से निवाले नहीं निगले जाते’
‘लेकिन आप रोये क्यूँ जा रहे हैं? कुछ तो बताएँ न दादू?’
‘अब मुझमें इतनी ताक़त नहीं कि मैं पुश्त-दर-पुश्त अपनी कमज़र्फ़ी का ऐतराफ़ करता रहूँ. मैं अपना बोझ उठाते-उठाते मैं बहुत थक गया हूँ बेटा’
‘कैसा बोझ दादू? बोलें न?
‘अपने पापा से पूछना.’
‘पापा से पूछा तो उन्होंने कहा कि आप से पूछूँ, और आप से पूछने पर आप कह रहे हैं कि अपने पापा से पूछना.’ जाएँ, मुझे नहीं पूछना किसी से, काश मेरी मम्मा इतनी जल्दी ख़ुदा के पास मेरी शिकायतें करने नहीं गयी होतीं तो मैं उन्हीं से पूछती. वो बहुत अच्छी थी, मेरे हर सवाल का जवाब देती थीं. मैं ही बुरी हूँ इसीलिए तो मम्मा भी मुझे छोड़ कर चले गए, पापा भी कुछ नहीं बताते और आप भी कुछ नहीं बता रहे.’
‘नहीं...मेरी बेटी तो बहुत प्यारी और समझदार है’
‘इसलिए मुझसे कोई कुछ भी शेयर नहीं करता’
‘दादू आपके साथ सबकुछ शेयर करेंगे, पर...एक शर्त है?’ – उन्होंने पोटली को लाल रंग के कपड़े से बाँध कर अपने आँसू पोंछते हुए कहा.
‘मुझे मंज़ूर है’
‘पहले हम दोनों साथ में नाश्ता करेंगे फिर...’
‘ओके, डन ! आप चलें अपने कमरे में, मैं दूसरा नाश्ता ले कर आती हूँ. वो तो कबका ठंडा हो चूका होगा.
***
हाँ, अब बताएँ.’ – नाश्ते के बर्तन किचन में रख वापस आकर उसने कहा.
हम राजपूत हैं वो भी जंजुआ और जंजुआ राजपूतों का इतिहास गवाह रहा है - वफ़ादारी, इमानदारी और इज़्ज़त के लिए ख़ुद को अपने ख़ानदान को क़ुर्बान कर देना. हमारे बाप-दादाओं ने कई राजाओं के फ़ौज की कमान संभाली है. हमारी नई नस्ल तलवार के साए में पैदा होती रही और पुरानी तलवार के साए में ही दम तोड़ती रही. हमने कभी जंग के मैदान में पीठ नहीं दिखाई. अना और बग़ावत को हमने तलवार की नोक से चीर कर अपनी शमसीर पर फ़तह की तारीख़ लिखी है. हमारे बाप-दादाओं की बहादुरी की चर्चे बादशाह सिकंदर लोधी के कानों तक भी पहुँची और सन 1501 में धौलपुर स्टेट फ़तह के साथ ही हमारे ख़ानदान के क़दम आज के हिन्दुस्तान में पड़े.
‘तो क्या हम बँटवारे के बाद हिन्दुस्तान से भाग कर पकिस्तान आये थे?’
जब हमारा ख़ानदान आज के हिन्दुतान में आया तब पाकिस्तान का वजूद ही नहीं था. तब सिर्फ़ हिन्दुस्तान था, राजा-रजवाड़ों का हिन्दुस्तान, भोले-भाले मासूम लोगों का देश हिन्दुस्तान. हमारा ख़ानदान स्यालकोट का है जो बँटवारे के बाद पाकिस्तान के हिस्से में आ गया. लगभग 26 सालों तक हमारे बाप-दादा सिकंदर लोधी के लिए लड़ते रहे और फिर सन 1527 में धौलपुर को बाबर ने जीत लिया. हारे हुए राजा के सैनिक क़ैद कर लिए गए और उनमें से चन्द बेहतरीन सैनिकों को मुग़ल सेना के साथ वफ़ादारी निभाने की क़समों के साथ फ़ौज में भर्ती कर लिया गया. इस तरह तरह हम सन 1527 से 1857 तक मुग़ल फ़ौज और मुग़ल शहंशाहों के वफ़ादार बने रहे. इस बीच हमारे ख़ानदान ने शहजादा ख़ुर्रम का वो बग़ावती तेवर भी देखा जब उन्होंने सम्राट जहाँगीर के ख़िलाफ़ दिल्ली के तख़्त के लिए तलवार उठाया. तब हमने दोनों ख़ेमों के लिए ख़ून बहाई थी. शहजादा ख़ुर्रम ने धौलपुर पर क़ब्ज़ा जमाने के बाद फ़तेहपुर सीकरी पर हमला किया और आसानी से जीत हासिल कर अकबराबाद (आज का आगरा) के लाल क़िला पर धावा बोला मगर जीत नहीं सके. अपनी फ़ौज वापस मोड़ बुरहानपुर में पनाह ली. इतिहास ने फिर करवट ली और जब शहजादा ख़ुर्रम बादशाह बन कर शाहजहाँ के नाम से तख़्त पर बैठे तब उनके बेटों ने उनके ख़िलाफ़ भी बग़ावत बुलंद की. औरंगज़ेब नहीं चाहते थे कि दारा शिकोह को धौलपुर क़िले पर फ़तह नसीब हो. उस बार भी दोनों ख़ेमों के परचम को हमने अपने वफ़ादारी से रंग डाला.
सन 1761 में धौलपुर पर मुग़लों की पकड़ कमज़ोर हुई और फ़ायदा उठाया राजा कल्याण सिंह भदौरिया ने. उसके बाद जाट महाराजा सूरजमल ने सन 1775 में इसपर क़ब्ज़ा जमाया फिर सिंधिया राजघराने ने सन 1782 में और आख़िर में अग्रेज़ों ने सन 1803 में. हमारे बाप-दादा ने सन 1761 में धौलपुर से मुग़ल राज ख़तम होते ही धौलपुर छोड़ दिया. शहजादा ख़ुर्रम की फ़ौज की तरफ़ से फ़तेहपुर सीकरी जीतने में मदद करने के एवज़ में उनके बादशाह बनते ही हमें भरतपुर में जागीर मिल गयी. कई पुश्तें भरतपुर में पैदा हुईं और कई वहीँ मर-खप गयीं. दिल्ली में सन 57 के ग़दर के कमान संभाली आख़िरी मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फर ने. मेरे दादा ने सन 1857 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आख़िरी बार मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फर के लिए तलवार उठाई.  ज़बरदस्त मार-काट मची थी, अपनों की मुख़बरी और अंग्रेज़ों की भारी फ़ौज के सामने कमज़ोर पड़ चुकी मुग़ल सेना कबतक लड़ती. हार यक़ीनन थी और हुई भी. शहंशाह हुमायूँ के मक़बरे से गिरफ़्तार हुए और फिर शुरू हुआ कभी न रुकने वाला फाँसियों का सिलसिला. ख़ूनी दरवाज़े पर मेरे दादा को फाँसी दे दी गयी. लाश कई दिनों तक झूलती रही, किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि लाश उतार कर कफ़न और जनाज़े के बारे में सोचे.
***
मेरे अब्बा भरतपुर से दिल्ली आ गए. मैं दिल्ली में ही पैदा हुआ और वहीँ जवान हुआ. वो ख़ुद गुप-चुप तरीक़े से आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए और मैं दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ने लगा. आख़िरी साल में था तब जाने कैसे कॉलेज के अंग्रेज़ प्रिंसिपल को इस बात की भनक लग गई कि मैं दिलावर ख़ान का बेटा हूँ, जो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ साजिश करता है, नज्में लिखता है और लोगों को अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भड़काता है. प्रिंसिपल ने वादा किया कि अगर मैं अपने अब्बा को पकड़वा दूँ या उनका पता बता दूँ तो मैं इस कॉलेज में आगे भी पढ़ सकता गुण, अंग्रेज़ी सरकार को कोई ऐतराज़ नहीं होगा. किस बेटे को ये गवारा होगा कि उसका बाप उसकी वजह से जेल जाए. मैंने इंकार कर दिया जिसके बदले में मुझे कॉलेज से निकाल दिया गया. उन्हीं दिनों अमृतसर में ख़ालसा कॉलेज की बुनियाद रखने की चर्चा ज़ोरों पर थी. दो साल मैं दिल्ली में पड़ा रहा पर पढ़ने को दिल नहीं चाहा, अब्बा ने भी ज़ोर नहीं दिया. एक दिन मैं जब हॉकी खेलने लिए तैयार निकला तो उन्होंने पकड़ लिया.
‘ऐसा कबतक चलेगा?’
‘क्या? – मैंने हॉकी स्टिक से अपनी पिंडली थपथपाते हुए कहा.
‘यूँ मारे-मारे कबतक फिरोगे?’
‘क्या करूँ? अंग्रेज़ी सरकार में तो नौकरी मिलना भी मुश्किल है.’
‘सिर्फ़ B. A. के भरोसे नौकरी मिल भी तो नहीं सकती, तुम आगे पढ़ाई क्यूँ नहीं करते?’
‘कॉलेज से तो निकाल दिया गया, अब किस कॉलेज में जाउँ पढ़ने?
‘तुम अमृतसर क्यूँ नहीं चले जाते?
‘ख़ालसा कॉलेज, अमृतसर...’
‘हाँ’
‘अच्छा, सोच के बताऊँगा आपको’
मेरे सोचने और बताने से पहले ही उन्होंने मुझे अमृतसर भेजने का फ़ैसला कर लिया था. जब हॉकी खेल कर वापस आया तो एक ख़त देते हुए कहा कि - ‘मैंने तुम्हारे और अपने हवाले से तमाम बातें लिख दी हैं, वहाँ तुम्हारा नाम भी लिख जाएगा और कोई परेशानी भी नहीं होगी, रहने-खाने का भी इंतज़ाम हो जायेगा.’
‘रहने-खाने का, पर कहाँ, किसके पास?’
‘प्रोफ़ेसर रयान थॉमस के घर’
‘अंग्रेज़ के घर?’
‘वो मेरा दोस्त है, बाक़ियों की तरह नहीं है, भला आदमी है.’
‘अंग्रेज़ और भला’ – मैंने नफ़रत से कहा
‘अच्छा, पहले मिल तो लो, अच्छा न लगे तो मत रहना उसके वहाँ, बाक़ी तुम्हारी मर्ज़ी. तुम अपने फ़ैसले करने के लिए आज़ाद हो.’
तैयारी तो क्या करनी थी, ख़ुद को समझाने में ज़रा वक़्त लगा. हफ़्ते भर सोचने के बाद मैंने अपना सामान बाँध लिया. अमृतसर पहुँच कर एक धर्मशाला देखा और वहीँ डेरा-डंडा डाल लिया. 2-3 दिन इधर-उधर घूमता रहा और फिर एक दिन ख़त ले कर ख़ालसा कॉलेज में प्रोफ़ेसर रयान थॉमस के पास पहुँच गया. उन्होंने ख़त की तारीख़ देखी और फिर मुझे. थोड़ी देर बाद मेरी तरफ़ देखा और पूछा,
‘एम. ए क्यूँ करना चाहते हो?’
मैंने कहा, - अब्बा ने कहा है?
एक बारीक सी मुस्कराहट उनके होंठों पर रेंग गयी.
फिर पूछा, - ‘किस सब्जेक्ट में?’
मुझे पसंद तो इंग्लिश था और मैं चाहता भी वही था पर इतिहास कह दिया और कहा भी इसलिए कि फ़ेल हो गया तो पढ़ाई और अंग्रेज़ों से पीछा छुटे.
‘ठीक है, कल सुबह आ जाना तुम्हारा एडमिशन हो जाएगा. और अभी तक कहाँ थे तुम? तुम्हारा सामान....?’
‘वो तो धर्मशाला में है.’
‘क्यूँ? तुम्हारे अब्बा ने तो ख़त में तुम्हें मेरे साथ रहने को लिखा है.’
‘हाँ, लिखा तो है पर...मुझे अंग्रेज़ पसंद नहीं.’
मेरे जवाब पर उनका गोरा रंग मांड पड़ गया, एक चुप्प से लग गयी उन्हें. मुझे वहाँ खड़ा देखकर उन्होंने सर के इशारे से मुझे जाने को कहा. अगली सुबह मैं कॉलेज गया और मेरा एडमिशन हो गया. मैं पढ़ाई के साथ आज़ादी की सरगर्मियों में भी हिस्सा लेने लगा. देखते-देखते कब दो साल बीत गए पता ही नहीं चला. बस इतना पता चला कि मैं इतिहास लेकर भी फ़ेल नहीं हुआ और प्रोफ़ेसर रयान थॉमस बिलकुल भी वैसे नहीं थे जैसा मैं सोचता था. वो मेरी सोचों से कहीं ज़्यादा अच्छे इंसान थे, मेरे दोस्त और हमदर्द थे.
***
फ़र्स्ट क्लास फ़र्स्ट एम. ए पास करते ही मुझे कॉलेज में ही पढ़ाने का मौक़ा मिल गया. ये प्रोफ़ेसर रयान थॉमस की एक और मेहरबानी थी मुझपर. उनदिनों अपने-अपने सब्जेक्ट्स के टॉपर को अमूमन पढ़ाने का न्योता मिल जाया करता था. नौकरी लगी और अब अब्बा ने मेरी शादी कर दी. ख़ुदा ने मुझे 2 बेटी और तीन बेटों ने नवाज़ा. तुम्हारा बाप सबसे छोटा है. उसकी पैदाइश के 3-4 सालों के बाद ही तुम्हारी दादी इस दुनिया से कूच कर गयीं. इसी बीच आज़ादी की लड़ाई ने बहुत ज़ोर पकड़ लिया था.  लाला लाजपत राय की मौत और भगत सिंह की फाँसी ने नौजवानों को पागल कर दिया था. हर रोज़ एक नयी तंजीम बनती और अंग्रेज़ों की नींद हराम कर देती. गोलमेज़ कांफ्रेंस ने अलग हंगामा किया हुआ था. मुस्लिम लीग और कांग्रेस लीडरों के आपसी ताफ़रक़े ने देश के बँटवारे कि नींव रख दी थी. सन 42 का भारत छोड़ो आन्दोलन बहुत कामयाब गुज़रा था और देशभर में अब ये चर्चा आम हो चली थी कि अंग्रेज़ अब गए कि तब गए.
कुछ दिनों से उमस बहुत बढ़ गयी थी. मैं कॉलेज से रिटायर हो चूका था और कभी-कभार प्रोफ़ेसर रयान थॉमस से मिलने उनकी कोठी पर पहुँच जाता था. उस दिन सुबह-सुबह हलकी बूंदा-बांदी हो रही थी. मैं छाता लिए पैदल ही प्रोफ़ेसर रयान थॉमस के घर की तरफ़ चल पड़ा. लाल ईंटों वाली उनकी कोठी दूर से ही दिख जाती थी. कॉले खम्भे पर तरतीब से ऊपर की तरफ़ चढ़े बोगनबलिया पर हलके गुलाबी और सरसों के रंग के फूल खिले थे. दुसरे खम्भे से मनी प्लांट और चमेली की डालियाँ ऊपर को चली गयीं थी, चमेली की डालियों पर भी सफ़ेद फूलों की बहार थी. प्रोफ़ेसर रयान थॉमस लॉन में केन की कुर्सी पर उदास बैठे थे. इतने उदास कि उन्हें मेरे आने का एहसास तक नहीं हुआ. क्या हुआ? आज इतने उदास क्यूँ हैं? मुझे देख उनकी बूढी आँखों में थोड़ी चमक आई और बुझ गयी. अल्मांडा के पीले फूल से भी ज़्यादा पीला हो रहा था उनका चेहरा. मैंने फिर पूछा, क्या हुआ? कोई परेशानी?
‘माउंटबेटन ने इस देश के बँटवारे की तजवीज़ को क़बूल कर लिया है. जैसे 1905 में बंगाल के नक्शे पर एक लकीर ने लोगों के दिलों को बाँट दिया था वैसा ही इस बार भी होगा. रेडक्लिफ़ को पंजाब के नक्शे और मुसलमान इलाक़े को बाक़ी के भारत से अलग करने का ज़िम्मा सौंपा गया है.’
‘लार्ड माउंटबेटन ने?’ – मैंने हैरत से कहा
‘उसे लार्ड मत कहो एहसान, वो सभ्य समाज का एक शातिर हत्यारा होगा. मेरी ये बात याद रखना.’
प्रोफ़ेसर रयान थॉमस की बात सच साबित हुई. बँटवारे के दस्तावेज पर दस्तख़त होने से पहले ही दंगों की आहट थी और कई जगहों पर हुई भी थी. दस्तख़त ने मानो दंगों को मंज़ूरी दे दी. दंगों पाँच लाख लोगों का मारा जाना इस बात का सबूत है कि इसकी तैयारी पहले से थी और जम की थी. सन 47 में ब्रिटिश इंडिया से दो देश उगे. भारत और पकिस्तान. पकिस्तान की तरह भारत टुकड़ों में नहीं बंटा. ईस्ट और वेस्ट पाकिस्तान की सरहर्दों पर जम कर ख़ून-ख़राबा हुआ और सांप्रदायिक दंगे दोनों दिशाओं की सरहदों पर हुए. बंगाल, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान में पनाह की ग़र्ज़ से भागे जो 1905 के बंगाल विभाजन के बाद और और बदहाल और कंगाल हो चूका था. पश्चिमी उत्तरप्रदेश, कश्मीर और पंजाब के मुसलमान पश्चिमी पाकिस्तान में पनाह की ग़र्ज़ से भागे और पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान से सिख और हिन्दू हिंदुस्तान की ओर. साउथ इंडिया के मुसलमान दंगों से ज़्यादा बर्बाद नहीं हुए पर सन् 48 के ऑपरेशन पोलो में अकेले हैदराबाद में ढाई लाख मुसलमानों का क़त्ल हुआ. सेंट्रल इंडियाके मुसलमान भी दिल्ली के रास्ते पकिस्तान के लिए चल पड़े, पर कितने लोग सरहद पार कर पाये?
गढ़मुक्तेश्वर के रास्ते दिल्ली को जाने वाले लाखों मुसलमान कभी दिल्ली नहीं पहुँच पाये, पश्चिमी पाकिस्तान क्या पहुँचते? लाखों लाशें नहर में तैरती मिलीं. वैसे ही बंगाल और बिहार के लाखों मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान पहुँचने से पहले मौत के घाट उतार दिए गए. नोअखोली में लाखों हिन्दुओं को मुसलमानों ने मारा. दंगों में सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं मरे. कई बार मुसलमान के धोके में ईसाई भी मारे गए. रावलपिंडी के दंगों में लाखों हिन्दू और सैकड़ों सिख भी मारे गए. वो जगहें गिनती की हैं जहाँ मुसलमानों ने हिन्दू और सिखों को मारा मगर वो अनगिनत जगहें इतिहास से नदारद हैं जहाँ हिन्दू और सिखों ने मुसलमानों को मारा. कहीं मरने वाले मुसलमान थे तो मारने वाले हिन्दू और सिख तो कहीं हिन्दू और सिख मरने वालों में थे और मारने वाले मुसलमान थे मगर हर जगह मरी सिर्फ़ इंसानियत और मिली सिर्फ़ लाशें. मासूम बच्चियों की इज़्ज़तें उनके भाई और बाप के उम्र के लड़कों ने लूटी . औरतों को घरों से निकाल कर सरे आम उनकी इज़्ज़त उनके बेटे और भाई के उम्र के लड़कों ने लूटी. बूढों तक ने उनपे रहम न किया.
‘दादू ये सब तो मैंने दर्जनों किताबों में पढ़ी है पर इन सबका आपके रोने और उस राख वाली पोटली से क्या रिश्ता है? मुझे तो अबतक समझ नहीं आया.
***
जब दंगे अपनी शबाब पर थे तब हम अपनी जागीर गुरदासपुर में थे. पहले ये पाया गाया था कि ये हिस्सा पाकिस्तान को दे दिया जाएगा लेकिन ऐन वक़्त पर ये हिन्दुस्तान के हिस्से में आ गया और फिर शुरू हुआ हैवानियत का नंगा नाच. झुण्ड के झुड सरदार आते घरों से बहु, बेटियों बीवियों को उठा कर ले जाते और उनकी इज़्ज़तें तार-तार कर देते. गोल-गोल हिन्दू और सिख आते और मिनटों में दर्जनों आदमी के सर उनके तन से जुदा कर दिए जाते. मैं चूँकि कॉलेज में पढ़ा चूका था इसलिए आस-पास के लोग मेरी इज़्ज़त करते थे. अबतक हमारे घारों पर किसी ने धावा नहीं बोला था ना ही किसी ने बुरी नज़र से देखा था. रोज़ रात में नीम के बड़े से पेड़ के नीचे चौपाल जमती और मौत पर नंगी हँसी से चौपाल शरमा जाता. ऐसे ही एक दिन सुखविंदर और त्रिलोचन चौपाल पर लाशों की गिनती और अपनी कमीनी हरकतों पर दाद वसूल रहे थे जब मैंने उन्हें टोक दिया कि मज़हब के नाम पर लोगों को क़त्ल करते हुए तुमलोगों को शर्म नहीं आती? उन्होंने पलट कर जवाब दिया, - आप हमारे गाँव के हो इसलिए अभी तक सही-सलामत बचे हो, कहीं ऐसा न हो कि हम किसी दिन गुरदासपुर लूटने में लगे हों और कोई और जत्था आपकी बेटियों को लूट ले. अगर सलामती चाहते हो तो रातों-रात सरहद पार जाओ. वरना हम कब तक तुम्हारी रखवाली करेंगे. किसी दिन हमारी भी नियत.....’
इसके आगे सुनने की न मुझे ज़रुरत थी न मैंने कोशिश की. इंसान को हैवान बनते देर नहीं लगती. उनकी बातों से मेरी रीढ़ की हड्डी तक में सिहरन उतर गयी मगर वो बेशर्मी से हँसते रहे और नीम की लड़की से दाँत खोदते रहे. मैं वहाँ से भारी मन से उठा और सोने के लिए लेट गया, मगर नींद आँखों से कोसों दूर थी. ऐसे हालात में भला नींद किसे आती? जो कल तक मुहाफ़िज़ थे वो आज भेड़िये बन हैं. और भेड़ियों को सिर्फ़ गोश्त का लोथड़ा दीखता है चाहे वो किसी का भी हो. जब हैवानियत पर उतर आयेंगे तब वो ये न सोचेंगे कि मेरी बेटियाँ उनकी भी कुछ लगती हैं. वो उन्हें भी भभोड़ देंगे. जिन्हें मैं ता-उम्र इंसानियत का सबक़ डेटा रहा वो एक पल में हैवान बन गए. सिर्फ़ धर्म के नाम पर बदला लेने के लिए.
सारी रात मैं जागता रहा और सुलगता रहा. सुबह अपने तीनों बच्चों से मशवरा किया कि क्या हमें सरहद पार चलना चाहिए. जिस ज़मीन को हमने लगभग साढ़ेचार सौ सालों तक ख़ून से सींचा था उसे छोड़ने पर कोई रज़ामंद नहीं दिखा. मगर मैं अपने फैसले पर अडिग था. ये फ़ैसला एक मुसलमान की नज़र से नहीं एक बाप की हैसियत से किया था मैंने. मैं ये कैसे देख सकता था कि मेरी बेटियों की इज़्ज़त मेरे सामने लुट जाए. मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं उनके बिखरे वजूद की किरचियाँ समेट पाता. मुझेमें क्या, किसी भी बाप में इतनी हिम्मत नहीं होती.
मेरे दोनों बड़े बेटों ने पकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था. ज़ीशान को दिल्ली भेज कर मैंने अपनी जागीरों की नक़ल मँगवाने की कोशिश की थी. सुना था सरहद पार जागीर के बदले जागीर मिल रही है. काश इज़्ज़त के बदले इज़्ज़त मिलती. हफ़्ते भर बाद ज़ीशान जागीरों के नक़ल ले कर वापस आ गया. और हम चारों ने 13 अगस्त को हमेशा-हमेशा के लिए पकिस्तान जाने का इरादा कर लिया. हम चरों में मैं, ज़ीशान और मेरी दोनों बेटियाँ. कलेजे पर पत्थर रख कर मैंने दोनों बेटों को यहाँ रहने की इजाज़त दी थी. ये जानता था कि वो भेड़ियों से वो बाख नहीं पायेंगे मगर आख़िरी वक़्त में उस ज़मीन को प्यासा कैसे रखता जिसे मेरी नस्ल-दर-नस्ल अपने ख़ुन से सींचती आई है. जैसे-जैसे 13 अगस्त का दिन नज़दीक आ रहा था वैसे-वैसे बेकली बढ़ती जा रही थी. एक बाप के दिल को भला ऐसे हालत में कैसे चैन मिल सकता है जब उसकी दो बेटियाँ जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखने को तैयार हों और चारों ओर भेड़िये घात लगाए बैठे हों.
11 अगस्त की बात थी, ज़बरदस्त लूट-खसोट और क़त्ल-वो-ग़ारत की ख़बर मिली. 13 साल की बच्ची को उसके भाई-बहनों, माँ-बाप से छीन कर उनके सामने उसकी इज़्ज़त लूटी गयी और उसे क़त्ल कर दिया गया और उसकी माँ को भीड़ अपने साथ ले भागी. मेरा कलेजा मुँह को आ गया. अगर यही कुछ मेरे साथ और मेरी बच्चियों के साथ हुआ तो? मुझे मेरे ख़ानदान के सैकड़ों सालों की क़ुर्बानी का यही सिला देगा मेरा देश? नहीं...मैं अपने बुज़ुर्गों की रूह को शर्मिंदा नहीं करूँगा. ज़ीशान से मैंने मशवरा किया और उसे दो तेज़ धार हथियार लाने को कहा. हमारे बीच ये तय हुआ कि बाप और बेटा अपनी बेटी और बहन का गला उसी तरह रेत डालेंगे जिस तरह कभी हमने जंग में अपनों का गला उतारा था. वफ़ादारी और इज़्ज़त की पास के लिए ये जुर्म हमने करना था क्यूंकि कोई हमारी इज़्ज़त पर हाथ डाले ये हम राजपूतों को गवारा नहीं. तय हुआ कि 13 की बजाय 12 अगस्त को उन्हें क़त्ल कर हम रात के अँधेरे में सरहद पार कर जायेंगे ताकि इन्हें कोई शक न हो.
रात का पुर हौल सन्नाटा पसरा था. ज़ीशान तुम्हारी छोटी फ़ूफ़ी और मैं तुम्हारी बड़ी फ़ूफ़ी के बिस्तर के सिरहाने पहुँच गए मगर दोनों में से किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि उन्हें क़त्ल कर सकें. जंग और जज़्बात यही फ़र्क़ होता है शायद. हम दोनों वापस अपने कमरे में हारे हुए जुआरी की तरह लौटे और उन्हें क़िस्मत के धारे पर छोड़ने का इरादा कर लिया कि अब उनके साथ जो हो वो और ख़ुदा ही समझें मगर राजपूती ख़ून और वफ़ादारी का पास. पल-पल बढ़ता भेड़ियों का वहशीपन. अगली सुबह ख़बर मिली कि पास के गाँव में किसी वहशी ने मुसलमानों के 7 घर फूँक डाले. बस यही वो लम्हा था जब मैं भी वहशी बन गया. 13 अगस्त धीरे-धीरे गुज़र रहा था. वर्षों इंसानियत का पाठ पढ़ाने वाला उस्ताद आज ख़ुद वहशीपने की जाल बुन रहा था, पहले भी जाल बुना था मगर कामयाब नहीं हो पाया. दोनों बड़े बेटों को खालिहान की हिफाज़त के बहाने भेज दिया. अब घर में सिर्फ़ हम चार लोग थे जिन्हें सरहद पार जाना था. काली अंधेरी रात मौत का सन्नाटा लिए धीरे-धीरे उतर रही थी. सबलोग खाना खा कर सोने चले गए. मैंने बेटियों को गले से लगाया और कहा कि आधी रात को चुप-चाप अँधेरे में निकलना है, तबतक तुमलोग थोड़ा लो. सामान पहले ही बंध चूका था. वो सोने गयीं और हम जागने. लगभग घंटे भर बाद ज़ीशान मिटटी के तेल में भीगे कंडे ले आया और साथ में कई गैलन मिटटी का तेल भी. अभी 12 बजने में आधा घंटा रहता था. जब मैंने बेटियों के कमरे को बाहर से बंद किया और मिटटी का तेल उंडेल दिया. चरों तरफ़ मीट्टी तेल से भीगे कंडे ज़ीशान ने रखे और इस बार जज़्बात पर जंग हावी हुआ और मैं चौपाल के पास जानवरों को भगाने के लिए जलाए गए आग में से चन्द शोले उठा लाया और देखते-ही देखते आग की ऊँची लपट उठने लगी. उस आग में मेरा वहशी चेहरा भी आसमान ने देखा होगा. बच्चियों की चीख़ने की आवाज़ पर मैं तड़पा ज़रूर मगर वो तड़प से कम ही थी जो अपनी आँखों ने सामने अपनी बच्चियों के बिखरे वजूद को देख कर होता. जब लपटें आसमान को छूने लगीं हम दोनों पश्चिम की तरफ़ मुँह किये और मन-मन भर के क़दम उठाते लाहौर की तरफ़ चलने को तैयार हुए.
आग की लपटों को देखकर मेरे दोनों बेटे खलिहान से दौड़े-दौड़े आये और हम दोनों को बचाओ-बचाओ की आवाज़ के साथ पुकारने लगे. उन्हें लगा कि किसी दंगाई ने हम सबको आग के हवाले कर दिया है और वो बचाने की ग़र्ज़ से घर के अन्दर जाने की कोशिश करने लगे मगर आग ने उन्हें भी अपने चपेट में ले लिया. ज़ीशान चीख़ना चाहता था मगर वो चीख़ न पाया क्यूँकी मैंने उसका मुँह बहुत ज़ोर से दबा दिया और इस ज़ोर से दबाया कि वो बेहोश हो गया. उसे घसीट कर पास के पेड़ के पीछे किया और इतना रोया कि आँसू सुख गए. सुबह का उजाला फैलने लगा था जब उसे होश आया. 14 अगस्त की सुबह थी. आज़ादी की सुबह. इतनी उदास और ग़मज़दा. ख़ून में नहाई हुई. इसका तो मैंने तसव्वुर भी नहीं किया था. आग अब भी तेज़ थी मगर दिल के अलाव से कम. मैंने अपनी पगड़ी खोली...आँगन से एक मुट्ठी गर्म राख उठाई और बाँध लिया. ये वही राख है और वो जो लाल कपड़ा था न वो तुम्हारी बड़ी फ़ूफ़ी की शादी के लिए ख़रीदा था. जिसे मैंने आँगन में ही दफ़ना दिया...उन्हें कफ़न तो दे नहीं सका. बस याही आख़िरी नज़राना था उन चारों को मेरी तरफ़ से.
माहीन की आँखों से चनाब जारी थी, कुछ भी कहने की हालत में नहीं थी वो. बस अपने दादू को टुकर-टुकर देखे जा रही थी. देख रही थी अपने दादू को जिन्होंने अपनी इज़्ज़त की ख़ातिर कितनी बड़ी क़ुर्बानी दी थी. बहुत देर बाद जब होश में आई तो दादू के सीने से लगकर कहने लगी, ‘वो राख कोई आम राख नहीं मुक़द्दस राख है जिसे सुर्मे की तरह आँखों में लगाया जा सकता है. उन आखों में जिसने आज़ाद मुल्क सपना देखा था मगर किस क़ीमत पर? आज़ादी की क़ीमत होती है क्यूँकी वो क़ुर्बानी मांगती है. और दादू आप वहशी नहीं हो, आपने वो क़ुर्बान किया जो आपका था, आपने आख़िरी वक़्त में भी उस ज़मीन को अपने ख़ून से सींचा. अपने जिगर को किसी और मुल्क में रख कार किस्सी और मुल्क में जीना ही सबसे बड़ी क़ुर्बानी है. आज से ये राख भी मेरे लिए उतनी ही मुक़द्दस है जितनी आपके और पापा के लिए है. सलाम इस अज़ीम क़ुर्बानी को. सरहद पार करने की क़ीमत तो होती है और आपने अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी क़ीमत चुकाई है दादू.
***

 © नैय्यर /14-08-2015

Thursday 6 August 2015

ज्वालामुखी

उसके रक्तालभ कपोलों से
घुल कर चाँदनी
उसकी मरमरीं जिस्म पर
बिछा जाती है इक गुलाबी चादर
और उसकी आँखों के शफ़्फ़ाफ़ चनाब में
आकाश ऐसे पिघलता है जैसे
सर्दी में ठोप-ठोप टपकता आकाश


मैं असमर्थ हूँ अभी फ़र्क़ करने में
बारिश में भीगी कमल की पत्तियों और
संतरे के नंगी फाँक जैसी उसके होंठों के बीच
मगर मैं अंतर बता सकता हूँ
उसकी ज़ुल्फ़ों के अंधेरों
और बादल की कालिख के बीच का

अपने ज़बान की नोक से
उसके होंठों की चौहद्दी नापते हुए
मैं छू जाता हूँ उसका रक्तालभ कपोल
और भड़क जाती है मुझमें वही पुरानी अगन
जो वक़्त के साथ हो गयी थी
मृत ज्वालामुखी सी

मेरी मरमरीं बुत
दो अलग छोर पर अपनी ऊष्मा
धधकाने से बेहतर है
आ ! मेरी बाहुपाश में
ताकि हम क्षय कर सकें
अपनी अपनी ऊष्मा का
~
- नैय्यर / 04-08-2015

Monday 3 August 2015

क्या मुस्लिम सिर्फ़ ‘आतंकवादी’ और ‘राष्ट्रद्रोही’ ही रहेगा?

कुछ दिनों पहले फूलन देवी की पुण्यतिथि बीती है. मल्लाह जाति से आने वाली फूलन देवी का सामूहिक बलात्कार उच्च जाति के दबंगों ने किया और उन्होंने प्रतिशोध में हथियार उठा लिया. उनके इस कदम को बुद्धिजीवियों ने ‘क्रांतिकारी’ कदम कहा है क्योंकि यह जातीय संघर्ष के लिए था. उनके इस क्रांतिकारी क़दम ने उन्हें 'बैंडिट क्वीन' बना दिया. अपने यौवन से लेकर उम्र ढ़लने के पड़ाव तक फूलन देवी और उनकी गैंग ने हज़ारों जाने निगल लीं मगर कोई सज़ा नहीं. ढलती उम्र में आत्मसमर्पण कर उन्होंने अपने सारे पाप धो लिए और संसद तक पहुंच गयीं.

भारत का इतिहास दंगों के स्याह रंग से भी पुता हुआ है. बंटवारे और उसके बाद के सैकड़ों दंगों में मुसलमानों को मारा गया. मुस्लिम महिलाओं के साथ हिन्दू चरमपंथियों ने बलात्कार किया. उनके गर्भ चीरकर तलवार की नोक पर अजन्मे बच्चे को लहराया गया. मुस्लिम शिक्षण संस्थानों पर हमले किए गए और मज़ारों मस्जिदों को नेस्तनाबूत कर दिया गया. यहां पर प्रश्न उठना लाज़िम है कि इतना सब होने के बाद यदि कोई मुस्लिम प्रतिशोध में हथियार उठा ले तो वो आतंकवादी क्यों, क्रांतिकारी क्यों नहीं?


यह मानने में कोई गुरेज़ नहीं कि फूलन की तरह याक़ूब की वजह से भी कई जिंदगियां मिट गयीं मगर सज़ा सिर्फ याक़ूब को, क्यों? आत्मसमर्पण तो दोनों ने किए मगर फांसी सिर्फ़ याक़ूब को, क्यों? (सनद रहे कि आडवाणी और प्रवीण तोगड़िया के नाम यहां नहीं लिए जा रहे हैं)

गुजरात में जब मुस्लिमों को चरमपंथियों ने मारा था तो कौन-सा प्रतिशोध हो पाया था? गुजरात में ही घरों में घुसकर जब पुलिस सुरक्षा में हिंदूवादी ताकतों ने मुस्लिम औरतों के साथ बलात्कार किया तब क्या कोई जवाब मुस्लिम समुदाय से उठ पाया था? प्रतिशोध और जवाब सम्बन्धी कोई भी कार्रवाई तब भी नहीं हो पायी थी जब मुस्लिम भीड़ को सामूहिक रूप से जलाया गया था. हाशिमपुरा में तो पीएसी ने घरों से मुस्लिम नौजवानों को खींचकर नहर पर गोली मारी थी. अलीगढ़ से लेकर यवतमाल तक सैकड़ों दंगों में मुस्लिम बर्बाद हुए.

यहां सिर्फ मुस्लिम-मुस्लिम का रोना नहीं है. 1984 के सिख दंगों के बाद भी दमनकारी हिन्दू ताकतों का सिखों ने क्या बिगाड़ लिया? अलबत्ता 21वीं शताब्दी में वे उनके साथ राजनीति करते दिख रहे हैं. ईसाई ननों से बलात्कार, उनकी हत्या और चर्चों पर हमलों के बाद भी ईसाई समाज ने क्या कर लिया? लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोला में दलितों के नरसंहार पर दलितों ने क्या कर लिया? छिटपुट नक्सली हमलों से अलग, जिसमें वे खुद शामिल नहीं होते हैं, बस्तर के आदिवासियों ने ही कौन-सा पहाड़ तोड़ लिया?

प्रतिशोध में जब सिख हथियार उठाए तो चरमपंथी, आदिवासी उठा ले तो नक्सली, हिन्दू उठा ले तो राष्ट्रवादी, विद्रोही उठा ले तो अलगाववादी लेकिन एक मुस्लिम के प्रतिशोधी स्वरुप को आतंकवादी का नाम दिया जाता है. एक ही काम के इतने अलग नाम क्यों? यहां यह दलील नहीं दी जा रही है कि मुस्लिम को आतंकवादी मत कहो. बल्कि यह समझाने को कोशिश हो रही है कि एक नियम सब पर लागू हो. आतंकवादी उसे ही कहा जाए जो आतंकवादी हो. देशद्रोही उसे ही कहा जाए जो देशद्रोही हो. विरोधी उसे ही कहा जाए जो विरोधी हो. वहां निर्णय एक मानवीय आधार पर लिया जाए, न कि धर्म के आधार पर.

जिस देश की अदालत में फैसले का आधार मनुस्मृति को बनाया जाता हो, उस देश में कोई भी दमित वर्ग क्या कर सकता है? वे लिखने और भाषायी विरोध के अलावा कुछ नहीं कर सकते हैं, लेकिन हिंदूवादी ताकतों का आलम यह है कि वे इस लिखने और विरोध की आवाज़ से ही बिलबिला उठती हैं. क्या कहें इस बिलबिलाहट को, लोकतंत्र या नरसंहार?