Monday 21 September 2015



मेरे सवाल "क्या आप मुझसे शादी करेंगी?" का बजाए जवाब देने के उसने तमक कर साढ़े सैंतालिस डिग्री के कोण से मेरे चेहरे को घूरते हुए पूछा, - "कभी अपनी शकल देखी है आईने में?" मैंने उसकी शर्बती आँखों को नज़रों से चखते हुए कहा, - “आज तक तो मैं अपनी शकल आईने में ही देखता आया हूँ और अगर आप मेरे सवाल का जवाब ‘हाँ’ में दे दें मैं वादा करता हूँ कि मैं जल्दी ही अपनी शकल आपकी इन झील सी आँखों में देखने लगूँगा”. 

‘बड़े बदतमीज़ हो तुम’, उसने अपनी आँखों पे चश्मा जमाते हुए कहा.

‘जी, ज़र्रा नवाज़ी का बहुत-बहुत शुक्रिया लेकिन मैं आपकी इस तारीफ़ को इक़रार समझूँ या इनकार?’ चश्मे के पीछे छुपी उसकी आँखों को घूरते हुए मैंने पूछा.

‘तुम्हारा सर’ ... और वो पैर पटकती वहाँ से चली गयी. 
~
- नैय्यर / 21-09-2015
 

Tuesday 1 September 2015

औरंगज़ेब : व्यक्तित्व का छुपा पहलु

अबुल मुज़फ़्फ़र मुहियुद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब आलमगीर मुग़ल शहंशाहों में पहला शहंशाह हुआ जिसने क़ुरआन हिफ़्ज़ किया। सम्राट अकबर के ज़माने से ही हिन्दू मनसबदारों के साथ उदार रवैय्या रखा जाता था जिसे औरंगज़ेब ने भी अपनाया और अपने दरबार में किसी भी हिन्दू को उसके हिन्दू होने की वजह से उसके जायज़ हक़ या तरक़्क़ी से नहीं रोका।
शाहजहाँ हाथियों की लड़ाई देख रहे थे। शहज़ादा औरंगज़ेब हथियार से लैस घोड़े पर सवार मैदान के एक कोने में खड़ा था कि अचानक एक हाथी के हलक़ से बड़ी ख़ौफ़नाक चिंघाड़ निकली। शहज़ादे ने चौंक कर उसे देखा और फ़ौरन अंदाज़ा लगा लिया कि हाथी पर पागलपन का दौरा पड़ने वाला है। हाथी का महावत भी घबरा गया। उधर हाथी ने अपनी सूँढ़ उठाए क़रीब खड़े घोड़े पर हमला कर दिया। शहज़ादा भी मैदान में डट गया। शाहजहाँ आख़िर बाप था उसने गरज कर सिपाहियों को हुक्म दिया, "हाथी को ख़त्म कर दिया जाए" मगर शहज़ादे ने तेज़ आवाज़ में कहा, "अब्बा हुज़ूर ! सिपाहियों को रोकिये, मैं अल्लाह के हुक्म से हाथी का मिजाज़ दुरुस्त कर दूँगा" और अपना भाला हाथी के जिस्म में घोंप दिया जिससे हाथी और पागल हो गया और उसने शहज़ादे के घोड़े को अपनी सूँढ़ में लपेटा और ज़मीन पर पटक दिया। इसी बीच शहज़ादा फुर्ती से घोड़े से नीचे कूद चूका था। उसने अपनी तेज़धार तलवार म्यान से निकली और और ऐसा ज़बरदस्त वार किया कि हाथी की सूँढ़ कट कर दूर जा गिरी। इस ज़ख़्म से हाथी के होश ठिकाने आ गए और वो मैदान से भाग खड़ा हुआ। शहंशाह नेे मसनद से उठ कर शहज़ादा औरंगज़ेब को गले से लगाया और उसी वक़्त सबसे ख़तरनाक इलाक़े बलख़ पर हमला करने वाली फ़ौज का सिपहसालार बना दिया। तब औरंगज़ेब की उम्र महज़ 14 साल थी।
काफ़ी देर से औरंगज़ेब की फ़ौज़ जंग की तैयारी कर रही थी क्योंकि इस बार लड़ाई उज़बेग बाग़ियों से था जो बहुत दिलेरी से लड़ते थे। तैयारी पूरी होते ही शहज़ादा औरंगज़ेब शाही फ़ौज लेकर चल पड़ा और बलख़ शहर के क़रीब पहुँच कर उसने उसने ख़ेमे गड़वा दिए। उज़बेग लड़ाके गुरिल्ला जंग के बड़े माहिर थे। वो छुप कर बैठे रहते फिर मौक़ा पाकर अचानक हमला करते और फ़ौज को नुक़सान पहुँचा कर भाग जाते। शहज़ादे ने दुश्मन सरदार को पैग़ाम भेजा कि ''मेरी फ़ौज तुम्हारी फ़ौज से कम है मगर मेरा हौसला तुमसे चार गुना ज़्यादा है, मैदाने जंग में आकर आज़मा लो।'' दुश्मन सरदार को शहज़ादे की ललकार पसंद आई और वो अपनी भारी फ़ौज लेकर मैदान में आ गया। घमासान की लड़ाई होने लगी। इसी बीच अस्र की नमाज़ का वक़्त हुआ। शहज़ादे ने अपनी तलवार रोक दी, घोड़े की जीन से दबी जाय-नमाज़ खींची और मैदाने जंग में ही एक तरफ़ खड़ा होकर नमाज़ पढ़ने लगा। उज़बेग सरदार ने जब शहज़ादे को सुकून से नमाज़ पढ़ते देखा तो मारे हैरत के उसकी आँख खुली की खुली रह गयी। उसने चिल्ला कर अपनी फ़ौज को हुक्म दिया, "अपने हाथ रोक लो, इस शख़्स को अपने ख़ुदा पर इतना भरोसा है कि इससे लड़ना तक़दीर से लड़ने वाली बात है।" दोनों फ़ौजों में सुलह हो गई और उज़बेग सरदार ने शहज़ादे से दोस्ती कर ली। इस तरह औरगज़ेब पहला मुग़ल हुआ जिसने बलख को मुग़ल साम्राज्य में मिलाया।
मौलाना सालेह जैसे बुज़ुर्ग उस्ताद ने औरगज़ेब को क़ुरआन हिफ़्ज़ कराया था। शहज़ादा मौलाना सालेह के साथ साथ अपने सभी उस्तादों का बहुत एहतराम करता था। उसकी ये आदत शहंशाह बनने के बाद भी जारी रही। शहज़ादा कहा करता था कि ''उस्ताद इल्म देकर हैवान से इंसान बनाता है इसलिए उसकी इज़्ज़त करनी चाहिए।''
औरगज़ेब को हुक़ूमत करते कई साल गुज़र चुके थे। अब वो सारे हिन्दुस्तान का शहंशाह था। एक दिन मौलाना सालेह की बीवी ने अपने शौहर से कहा, "तुम्हारा शागिर्द बहुत बड़ा बादशाह बन गया है। तुम जाकर उससे बात करो तो वो हमारी ग़रीबी को बहुत आसानी से दूर कर सकता है।" मौलाना सालेह ने बहुत आराम से बीवी को समझाया, "नेक बख़्त ! क्यूँ मेरी नेकी बर्बाद करने पर तुली बैठी हो? उस्ताद अपने शागिर्द को देता है, लेता कुछ नहीं। दूसरी बात ये कि मेरा शागिर्द नाजायज़ काम करने को पसंद नहीं करता और अगर उसने मुझे दौलत वग़ैरह देने की कोशिश की तो मैं समझूँगा कि मेरी मेहनत बर्बाद हो गयी।" मौलाना सालेह ने अपनी बीवी को समझाने की बहुत कोशिश की मगर वो अल्लाह की बंदी अपनी ज़िद पर क़ायम रही।
आख़िरकार मौलाना सालेह ने हथियार डाल दिए और अपने शागिर्द से मिलने की तैयारी करने लगे। मौलाना सालेह एक ग़रीब इंसान थे मगर ख़ाली हाथ बादशाह के दरबार में जाना भी उन्हें पसंद नहीं था। उनकी बीवी ने गुड़ मिले आटे के गुलगुले बना दिए और एक मिट्टी के बर्तन में उसे बंद कर दिया। मौलाना सालेह ये तोहफ़ा लेकर शाही दरबार की तरफ़ रवाना हो गए। शदीद गर्मी का मौसम था, लम्बा सफ़र करके जब वो शाही दरबार में पहुँचे तो गुलगुलों से बदबू आने लगी थी। औरगज़ेब तख़्ते शाही पे बैठा कोई मुक़दमा सुन रहा था कि उसकी निगाह अपने उस्ताद पर पड़ी। वो फ़ौरन तख़्त से नीचे उतर पड़ा और भागता हुआ उस्ताद के सामने एहतराम से झुक गया। फिर बहुत इज़्ज़त से उन्हें तख़्त पर बिठा कर उनसे बातें करने लगा। "बरखुरदार औरंगज़ेब ! तुम्हारी माँ ने तुम्हारे लिए ये तोहफ़ा भेजा है" उस्ताद ने मिट्टी का बर्तन बादशाह के हवाले करते हुए कहा। औरंगज़ेब मिट्टी का बर्तन लेकर अपनी तख़्त पर जा बैठा और एक गुलगुला उठा कर मुँह में रखा। वह इतना बद-ज़ायक़ा और बदबूदार था कि कोशिश के बावजूद औरंगज़ेब उसे निगल नहीं सका। उस्ताद ने शागिर्द की हालात देखी तो उन्हें जलाल आ गया और कहने लगे, "मुहियुद्दीन औरंगज़ेब क्या बात है, बादशाह बन कर हलाल का निवाला खाने की आदत नहीं रही जो अब मिठाई भी तुम्हारे गले में अटकने लगी है?" सारे दरबार में ख़ामोशी छा गई। औरगज़ेब ने फ़ौरन गुलगुला निगल लिया और मुस्कुरा कर कहा, "हुज़ूर ! ऐसी कोई बात नहीं, मेरी तरफ़ से अम्मा जान का शुक्रिया अदा कीजियेगा। दरअसल मैं बे-वक़्त खाने का आदि नहीं इसलिए ज़रा मुश्किल हुई थी वरना मिठाई तो वाक़ई बहुत लज़ीज़ है।"
बादशाह ने एक और गुलगुला मुँह में डाला और आराम से खाते हुए मिट्टी का बर्तन अपने बेटे के हवाले कर दिया और मुस्कुरा कर कहा, "इसे हिफ़ाज़त से घर पहुँचा दो।" शहज़ादे ने दरबार से बाहर आकर मिठाई चखी तो उसे उबकाई आ गयी। उसने फ़ौरन मिठाई ज़मीन पर थूक दिया मगर शाहज़ादे को उस्ताद का मर्तबा और बाप की अज़मत का अंदाज़ा हो गया था।
औरंगज़ेब मुल्क की भलाई और तरक़्क़ी के कामों में इतना मसरूफ़ रहता था कि वो सिर्फ़ तीन घंटे सोता था। वो कुशल शासक होने के साथ ही बेहतरीन ख़त्तात था। उसने शाही ख़ज़ाने को अवाम का ख़ज़ाना समझा और उसे कभी अपनी ज़ाती ज़रूरतों के लिए ख़र्च नहीं किया। अपने घर में नौकर तक नहीं रखा और ख़र्च बचाने के लिए उनकी बीवी ख़ुद खाना बनाती थीं। औरंगज़ेब क़ुरआन के नुस्ख़े लिख कर और टोपियाँ सी कर अपने परिवार का ख़र्च पूरा करता मगर शाही ख़ज़ाने की अमानत में कभी ख़यानत नहीं की।

जवाब

लाजपत नगर के 'वेस्टसाइड' से शॉपिंग कर दोनों हाथों में बैग थामे निकला तो घड़ी की सुईयाँ रात के 10:55 बजने का इशारा कर रही थीं। पास से गुज़रते रिक्शे को सर के इशारे से रोका और तेज़ क़दम बढ़ाते हुए 'मेट्रो' कह बैठ गया। चारों बैग्स को बग़ल में रख वॉलेट में चेंज टटोला और डेबिट कार्ड को शर्ट की ऊपरी जेब से निकाल कर वॉलेट में रखा और बीस का नोट रिक्शे वाले को देने के लिए उसमें से निकाल लिया।
- 'ज़रा तेज़ चलो यार', वॉलेट पैंट की पिछली जेब में सरकाते हुए मैंने कहा।
- 'भाई साब, ! ये रिक्शा है, कोई प्लेन थोड़ी न है जो चलने की बजाय उड़ने लगे', उसने पैडल पर दबाव बढ़ा कर गर्दन पीछे मोड़ते हुए कहा। मैंने अपने बैग्स उठा कर गोद में रखे और स्ट्रीट लाइट के लैम्प्स से बिखर कर सड़क पर गिरती पीली रौशनी की क़तार को देखने लगा। मेट्रो स्टेशन पहुँचते ही मैं बैग्स सँभालते हुए उतरा और उसे बीस का नोट थमाते हुए आगे बढ़ गया तभी पीछे से उसकी आवाज़ उभरी।
- 'दस रुपये और', पसीना पोंछते हुए उसने कहा।
- 'पर...किराया तो बीस ही रुपये है फिर दस रुपये...'
- 'साब टाइम भी तो देखो, 11 से ऊपर हो गया है'
- 'तो...रिक्शे वालों ने भी नाईट चार्ज वसूलना शुरू कर दिया क्या?'
- 'साब पेट क्या सिर्फ़ ऑटोवालों के ही पास होता है क्या?' उसके जवाब ने मुझे लाजवाब कर दिया और मुझसे कुछ कहते नहीं बना। चुपचाप उसे दस का नोट थमाया और स्टेशन के अंदर दाख़िल हो कर सिक्यूरिटी चेकिंग की तरफ़ बढ़ चला।
जब प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचा तो वहाँ लगी घड़ी 11:19 का वक़्त बता रही थी और अभी मेट्रो ट्रेन आने में तीन मिनट बाक़ी थे। प्लेटफ़ॉर्म पर ब-मुश्किल 15 से 18 लोग थे। रात की तारीकी स्टेशन को छोड़ बाक़ी सबको अपनी कालिख में धीरे-धीरे रंग रही थी तभी ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ लगी। पाँच स्टेशन पार कर केंद्रीय सचिवालय तक पहुँचने में महज़ दस मिनट का वक़्त लगा। केंद्रीय सचिवालय से मैंने वायलेट लाइन छोड़ येलो लाइन की मेट्रो पकड़ी। भीड़ न के बराबर थी, कई सीटें ख़ाली थी फिर भी दिन भर ऑफ़िस में बैठे रहने की वजह से बैठने का दिल नहीं चाहा सो बोगी के दरवाज़े के ठीक सामने वाली स्टैंड से पीठ टिकाया और बैग्स को पैरों के बीच में रख दिया। अगले स्टेशन पटेल चौक पर वो चढ़ी और खम्भे से पीठ टिका कर मेरी दूसरी तरफ़ मुँह करके खड़ी हो गयी। मैं कनखियों से उसका चेहरा देखना चाहा पर नाकाम रहा। राजीव चौक पर भीड़ का एक रेला आया ख़ाली पड़ी सीटों पर बिखर गया। भीड़ को रास्ता देने के चक्कर में वो मेरे बाएँ तरफ़ खिसक कर आ चुकी थी। ऍफ़.एम के चैनल बदलते हुए मेरी नज़रें व्हॉट्स एप्प पर मैसेज टाइप करती उसकी उँगलियों पर टिक गयी। तराशे हुए नाख़ूनों पर बेबी पिंक कलर की नेल पॉलिश बहुत जँच रही थी। नाख़ून बढ़ने की वजह से जड़ की तरफ़ के सफ़ेद नाख़ून की पतली लकीर ऐसे लग रही थी जैसे बेबी पिंक कलर पर सिल्वर कलर की कोटिंग की गयी हो। शायद मेरी नज़रों की तपिश थी या उसकी छठी हिस का कमाल, उसने मेरी तरफ़ देखते हुए भवें उचकाते हुए देखा मानो पूछ रही हो कि 'क्या है?'
- 'आपके नाख़ून...', मैंने झेंपते हुए कहा।
- 'वेल शेप्ड एंड वेल फाईल्ड हैं और बढ़े हुए भी नहीं हैं जो आपको डर लगे। वैसे भी नाख़ून हैं कोई हथियार नहीं।' उसके जवाब में मैं बस मुस्कुरा के रह गया। उसकी बातूनी तबियत ने ये बताने की मोहलत ही नहीं दी की मुझे उसके नेल पॉलिश के कलर और शेड्स अच्छे लगे।
- 'कहाँ तक जाना है?' कश्मीरी गेट पर भीड़ के उतरने के बाद उसने पूछा।
- 'G.T.B नगर और आप?' बाएँ कान से हेडफ़ोन का ईयर पीस निकालते हुए मैंने कहा।
- 'मैं भी वहीँ तक' कहते हुए उसने अगला सवाल दाग दिया, 'Civil Aspirant?'
- 'और मैंने हाँ में सर हिला दिया जबकि मैं सिविल की तैयारी भी नहीं कर रहा था। हाँ, फ़र्स्ट एटेम्पट में प्री नहीं निकाल पाने के बाद ये चाहत थी कि एक बार तैयारी कर के सेकंड एटेम्पट दूँ पर तैयारी नहीं कर पाया। आज उसके इस सवाल ने उस कसक की टीस को फिर से ज़िंदा कर दिया था।
- 'व्हिच एटेम्पट?' उसके इस सवाल पर मैं वापस होश में आया तो इस बार सच बोला 'सेकंड।'
G.T.B. स्टेशन पर उतर हम ख़ामोशी से बाहर आये। उसने रिक्शा रोक कर उसपे बैठते हुए पूछा कहाँ?
- 'गाँधी विहार', मेट्रो कार्ड जेब में रखते हुए मैंने कहा।
- 'शेयरिंग?'
- मेरे 'श्योर' कहते ही वो दाएँ तरफ़ खिसक गयी मेरे बैठते ही रिक्शा चल पड़ा और उसका सवाल भी। सो, 'in which coaching you are?'
- 'Vajirao and Ravi', मुझे एक और झूठ बोलना पड़ा।
- 'तभी शौपिंग्स हो रही है, मुस्कुराते हुए उसने कहा। By the way, I am in Chanakya IAS Academy'
- 'योर सब्जेक्ट्स?' मैंने पूछा।
- 'पब्लिक ऐड. एंड जियोग्राफी', एंड योर्स?
- 'हिस्ट्री एंड पोल. साइंस' मैंने एक और झूठ गढ़ा'
बस यहीं...यहीं ! उसने रिक्शे वाले को रोकते हुए कहा। 'मेरा हॉस्टल आ गया', D-329 के सामने रिक्शा रुकते हुए उसने कहा और बीस रुपये का नोट मुझे पकड़ाते हुए गुड़ नाईट कहती चली गयी और रिक्शा आगे बढ़ने लगा तभी जाते-जाते उसने मुड़ कर कहा, by the way, 'I am Ananya Bharadwaj'. शुक्र है तब तक रिक्शा रफ़्तार पकड़ चुका था और उसने मेरा नाम नहीं पूछा वरना मुझे एक और झूठ गढ़ना पड़ता। रिक्शा आगे बढ़ते ही मन में ये ख़याल उभरा कि 'क्या मैं फिर से सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करूँ?' और दिल ने जब ढंग का कोई जवाब नहीं दिया तो मैंने हेडफ़ोन जब दुबारा कानों में लगाया तो उसपर 'तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं' बज रहा था। शायद मुझे मेरा जवाब मिल गया था।
~
- नैय्यर / 28-08-2015

फोन कॉल, चिप्स, कॉफ़ी ई.टी.सी.

- 'तो लोग पहुँच गए?' मेरे गला साफ़ करने वाली स्टाइल की नक़ल उतारने के बाद उसने सलाम करने के बाद खिलखिलाते हुए पूछा।
- 'कौन से लोग, मैं तो अकेला ही हूँ?' मैंने सलाम का जवाब देते हुए अनजान बनते हुए बेपरवाह अंदाज़ में कहा।
- 'पर उससे मिलने के बाद तो लोग दो हो गए हैं न?' सब ख़बर है मुझे वैसे, पर उसे कुछ पता नहीं कि लड़का कहाँ-कहाँ घूम रहा है?
- 'किसे?' मैंने अनजान बनते हुए पूछा जिसके जवाब में उसने कहा कि 'अरे वही आपकी...'
- 'पर वो तो फ़ेसबुक पर मुझसे जुड़ी ही नहीं है तो उसे कैसे ख़बर होगी मेरे आवारागर्दी के हरकतों की', उसका इशारा समझते ही मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
- 'आए-हाय! क्या बात है, उसका ज़िक्र आते ही लोग मुस्कुराने लगे।
- और क्या, वो है ही इस क़ाबिल। वैसे उसे मेरी हरकतों से आगाह रखो, मैं अच्छा लड़का हूँ कहीं उसके हाथ से निकल न जाऊँ? मैंने शरारत से कहा।
- 'और बताएँ'
- 'वापस कमरे पर जा रहा था की कॉल आया कि आपको मुझसे बात करनी है, सो मैं ख़बर मिलते ही आ गया आपसे बतियाने।'
- 'रहने दें, रहने दें! मिलने गए हैं किसी और से और बहाना मेरा। बातें बनाना कोई आपसे सीखे।'
- 'बात नहीं बना रहा मैं, सच कह रहा हूँ।' वैसे तुम इनबॉक्स में तो बहुत हड़काते रहती हो मुझे और फोन पर तो आवाज़ बिलकुल बच्चों जैसी है।
- 'हाय...! अरे इस लड़की ने मेरे भौकाल का फ़ालूदा निकाल दिया।' उसकी इस बात पर हम दोनों के ज़ोरदार कहकहे उबाल पड़े। हँसी रुकते ही उसने पूछा, वैसे है कहाँ ये लड़की?'
- 'कॉफ़ी बना रहा ही मेरे लिए' मोबाइल पर मैसेज चेक करते हुए कहा मैंने।
- 'मुझे फ़ोटो भेज दीजियेगा कॉफ़ी का'
- 'क्यूँ, कॉफ़ी का फ़ोटो किसलिए? मैंने हैरत से पूछा।
- 'मुझे देखनी है कि उसने आपके लिए कैसी कॉफ़ी बनाई है?'
- 'एक ही इंसान दो तरह की भी कॉफ़ी बनाता है क्या?'
- 'अरे वो बहुत घुन्नी है, दो लोगों के लिए दो तरह की कॉफ़ी बना सकती है। उसकी शकल पर मत जाइये। वैसे आज इतने दिनों बाद बात हो ही गयी अपनी, है न?' मुस्कुराते हुए उसने कहा।
- 'हाँ! हो तो गयी, पर दोस्ती की जड़ से बतियाना अभी तो बाक़ी ही है। ये तो डाली है।'
-'राइटर से बतियाने का यही फ़ायदा है, बात को कितनी ख़ूबसूरती से मोड़ देते हैं न?
- 'कौन राइटर, कहाँ का राइटर?
- 'आप, दिल्ली घूमने वाले राइटर।'
- 'इसलिए लोग ख़ुद से बतियाने से डरते हैं, आज बात भी कर रहे हैं तो दूसरे की वजह से।'
- 'आप बार-बार इससे मिलने आते रहा करिये मैं बतियाते रहा करुँगी आपसे।'
- 'ख़ुद फ़ोन करना तब बतियाना, अभी दूसरे का पैसा काट रहा है, वैसे भी हम बहुत देर से गपिया रहे हैं।'
- 'अरे आप उसके बैलेंस का टेंशन न लो, बहुत अमीर है वो। अच्छा, चलिए जब अगली बार आएँगे आप तब फिर बात करेंगे, इसी वादे के साथ हम दोनों ने एक दूसरे को ख़ुदा हाफ़िज़ कहा और कॉल डिसकनेक्ट कर दिया।'
-'क्या हुआ, फिर लड़ाई हो गयी क्या?' जब वो कॉफ़ी लिए आई तो मुझे चुप देख कर बेसाख़्ता पूछ बैठी।
- 'नहीं, लड़ाई नहीं हुई, बात ख़त्म हो गयी।'
- 'आप दोनों इतना लड़ते हैं न कि आप दोनों की चुप्पी से यही डर लगता है कि कहीं फिर तो नहीं लड़ बैठे।'
- 'हमारी दोस्ती ही ऐसी है।' और फिर हमदोनों कॉफ़ी और चिप्स से इंसाफ़ करते हुए कितनी देर बतियाते रहे पता ही नहीं चला। अचानक घडी पर नज़र पड़ी तो उसने चुपके से डेढ़ घंटे गुज़र जाने का एहसास दिलाया। कुछ देर और बात करने के बाद हम दोनों एक दूसरे को अलविदा कहते हुए अपने-अपने राह लगे।
~
- नैय्यर / 19-08-2015