Thursday 14 January 2016

ऑड-इवन

कल प्रायोगिक सम-विषम फ़ॉर्मूले का आख़िरी दिन है। मैं तो इस मुहिम का समर्थक हूँ और अबतक आये इसके नतीजे से ख़ुश और उत्साहित भी। काश ये मुहिम आगे भी जारी रहे...ख़ैर

इसमें कोई दो राय नहीं कि ज़्यादा प्रदुषण तो अमीर और अपर मिडिल क्लास वाले ही फैलाते हैं और इसे क़बूल भी नहीं करते। प्रदुषण कम करने के लिए बनाये गए नियम-क़ानून भी इन्हें पसंद नहीं। इस नियम का विरोध करने वाले अधिकतर लोग वही हैं जो सड़कों के 95% क्षेत्र पर अपनी बपौती जताये रहते हैं। लोअर मिडिल क्लास और ग़रीबों की तो क़िस्मत में ही है सार्वजनिक परिवहन साधनों में धक्के और गाली खाना फिर भी वो नियम मानने को तैयार हैं। मान इसलिए भी रहे हैं क्यूँकि इस नियम से उनका 'बेकार' का कुछ वक़्त बच जा रहा है।

इस नियम से सबसे ज़्यादा दिक़्क़त तो उन्हें है जो हर सुबह-शाम ट्रैफ़िक जाम का बहाना बना कर घर से सुबह जल्दी निकलते और रात देर से वापस आते हैं और 'बचाये' हुए वक़्त CCD के माहौल की ख़ुमारी में कॉफ़ी और उसके 'हाँ' के इंतज़ार में गुज़ार देते हैं। इस नियम से लोगों की पत्नियाँ इसलिए ख़ुश हैं कि वो सुबह आराम से उठ सकती हैं, शाम में पति महोदय वक़्त पर आने को 'मजबूर' हैं और इन्हें हफ़्ते के सभी दिन गाड़ी चलाने की 'छूट' है।

इस नियम से दिल्ली की युथ भी काफ़ी उत्साहित है और 'हेल्थ कॉन्सियस' भी हो गयी है। मेट्रो में तशरीफ़ टिकाते ही ये अपने बैग से एक बड़ा सा 'रेड एप्पल' निकाल सबके सामने भकोसने लगते हैं। मेट्रो में एक मोहतरमा तो ऐसी दिखीं जो डिब्बे से मुट्ठी भर 'ड्राई फ़्रूट्स' निकाल कर टूंगने लगीं। बड़े बेमुरव्वत लोग हैं, बगल वाले से पूछते भी नहीं कि आप खाएँगे या नहीं? मुझ जैसा ख़ुशख़ुराक़ बन्दा तो शायद ही कभी मना करे। हालाँकि मेट्रो में खाना-पीना मना है पर अपने देश में नियम मानने से ज़्यादा तोड़े जाते हैं। बसों में ऐसी प्रजातियाँ कम ही देखी हैं मैंने। अरे हाँ ! एकाध बार संतरे और मूँगफली खाते हुए भी तो कुछ लोग दिखे हैं। 

मेरी राय में ये सम-विषम क़ानून आशिक़ों पर भी लागू होनी चाहिए क्यूँकि ये लोग भी 'धुआँ उगलकर' प्रदुषण फैलाने में अपना 'योगदान' दे रहे हैं। नहीं समझे? चलिए इक शे'र की मदद से समझाता हूँ। 'उदास शायर' मीर तक़ी मीर कहते हैं कि 'देख तो दिल कि जाँ से उठता है?, ये धुआँ सा कहाँ से उठता है?' तो 90 के दशक में फ़िल्म बाज़ीगर में देव कोहली कहतें हैं कि 'इश्क़ वो आग है जिसमें नहीं है धुआँ', भई ! मैं तो 80 के दशक में पैदा हुआ हूँ इसलिए मैं इश्क़ के उसी सिलसिले से मुरीद हूँ जिससे मेरे मुर्शिद 'मीर' हैं। साइंटिफ़िक दौर में इश्क़ पर भी रिसर्च होना चाहिए कि इश्क़ में आशिक़ धुआँ उगलता है या नहीं और CSIR से इसके लिए फ़ंड भी मिलना चाहिए। चूँकि मैं इश्क़ में धुआँ उगलने वाले तर्क का समर्थक हूँ इसलिए अगर CSIR ऐसा कोई पहल करती है तो मैं प्रोजेक्ट जमा करने में जल्दबाज़ी करूँगा।

वैसे भी मैं आशिक़ों के लिए सम-विषम नियम की माँग इसलिए भी करता हूँ कि मैं 'उसके' फ़िराक़ में 'अलटेर्नेट डे' आह भरूँगा मने धुआँ उगलूँगा तो इससे आने वाली नस्लों को साफ़-सुथरी फ़ज़ा में इश्क़ बघारने का मौक़ा तो मिलेगा ही और मैं उसकी 'यादों के हिज्र' में एक दिन मर लिया करूँगा तो दूसरे दिन 'यादों के विसाल' में जी लिया करूँगा। वैसे मरता तो मैं हरपल उसी पे हूँ पर इस प्रदूषित माहौल में मैं कुछ पल तो अपने लिए जी सकूँ।
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- नैय्यर